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कलम, तलवार और त्याग
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या उस पर तर्स खाय। उसका स्वाभिमानी हृदय कभी इसे सहन न कर सकता था।

जो हृदय अपनी जाति की स्वाधीनता पर बिका हो उसे एक पहाड़ी में बंद रहकर राज्य करने से क्या संतोष हो सकता था। वह कभी-कभी पहाड़ियों में बाहर निकलकर उदयपुर और चित्तौड़ की ओर आकांक्षा भरी दृष्टि से देखता कि हाय, अब यह फिर मेरे अधिकार में न आयेंगे! क्या यह पहाड़ियाँ ही मेरी आशाओं की सीमा है। अकसर वह अकेले और पैदल ही चल देता और पहाड़ के दर्रों में घंटो बैठकर सोचा करता। उसके हृदय में उस समय स्वाधीनता की उमंग का समुद्र ठाठे मारने लागता, आँखें सुर्ख हो जाती, रगे फड़कने लगतीं, कल्पना की दृष्टि से वह शत्रु को आते देखता और फिर अपना तेगा सँभालकर लड़ने को तैयार हो जाता। हाँ, मैं बाप्पा रावल का वंशधर हूँ। राणा सांगा मेरा दादा था, मैं उसका पोता हूँ। वीर जगमल मेरा एक सरदार था। देखो तो मैं यह केसरिया झंडा कहाँ-कहाँ गाड़ता हूँ! पृथ्वीराज के सिंहासन पर न गाड़ूँ, तो मेरा जीना अकारथ है।

यह विचार, यह मंसूबे, यह जोशे-आज़ादी, यह अन्तर्ज्वार सदा उसके प्राणों को जलाती रहीं। और अन्त में इसी अंतर की आय ने उसे समय से पहले ही मृत्यु-शय्या पर सुला दिया। उसके गैंडे के-से बलिष्ठ अंग-प्रत्यंग, और सिंह का-सा निडर हृदय भी इस अग्नि की जलन को अधिक दिन सह न सके। अंतिम क्षण तक देश और जाति की स्वाधीनता को ध्यान उसे बँधा रहा। उसके सरदार जिन्होंने उसके साथ बहुत-से अच्छे-बुरे दिन देखे थे, उसकी चारपाई के इर्द-गिर्द शोक में डूबे और आँखों में आँसू भरे खड़े थे। राणा की टकटकी दीवार की ओर लगी हुई थी और कोई खयाल उसे बेचैन करता हुआ मालूम होता था। एक सरदार ने कहा—महाराज, राम नाम लीजिए। राणा ने मृत्यु-यन्त्रणा से कराहकर कहा—'मेरी आत्मा को तब चैन होगा कि तुम लोग अपनी-अपनी तलवारें हाथ में लेकर