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मौ० अब्दुलहलीम 'शरर'
 


की अन्य पुस्तकें लिखीं। पक्के हनफी सूफी और रोजा नमाज के पाबंद हो गये। नमाज़ तो एक ही नियम से पढ़ते रहे। जो धर्मभीरुता अन्तिम काल में उत्पन्न हो गई थी उसका दरजा बहुत ऊँचा था! चालीस-पचास बरस की उम्र तक तुर्की टोपी पहनी और फ्रेंच दाढ़ी रखी, ख़िज़ाब भी लगाते रहे, पर इस समय उनका हुलिया और ही था। चौगिया (चौगोशिया) टोपी, लम्बी सफेद दाढ़ी, भरा हुआ बदन, मॅझोला क़द, गोला तेजयुक्त मुख-मण्डल, जबान पर इसलाम और इसलामी इतिहास की चर्चा थी। बातों-बातों में, खुदा और रसूल की चर्चा का पहलू निकाल लेते थे।

अन्तिम काल में उनका आना-जाना बस घर से झँवाईटोले तक रह गया था। पर यह असंभव था कि वह आवश्यकतावश हमारी ओर से निकले और हमसे न मिलें और अपने दो-चार मिनट खर्च न कर दें। साल भर का अरसा हुआ जब मौलाना कुछ बीमार हुए और स्वप्न में देखा कि उनके कुछ परलोकगत पूर्वपुरुष उनसे कह रहे हैं। कि अब तुम चले आओ। मौलाना ने यह सपना लोगों को सुनाया और कहा कि अब आशा नहीं कि हम इस बीमारी से उठेंगे। मित्रों ने कहा कि आप घबराएँ नहीं, हम दुआ करेंगे और आप अच्छे हो जायँगे। संयोग से ऐसा ही हुआ। मौलाना अच्छे हो गये और ऐसे अच्छे हुए कि अपना काम अच्छी तरह करने लगे।

मौलाना १० बजे से क़लम लेकर बैठते और दो बजे तक बराबर लिखा करते थे। दो से ४ बजे तक कमरे में जाकर सोते थे या आराम से लेटे रहते थे। शाम को मित्रों से मिलने-जुलने चले जाते थे और अकसर ८-९ बजे रात को घर आते थे। लेख-शैली जैसी पारदर्शिता- पूण थी, वक्तृत वैसी न होती थी। पर आरंभ करने के बाद धीरे-धीरे उसे भी रोचक बना लेते थे और उपसंहार बहुत ही मनोरंजक होता था।

काव्यरचना अपकी नाममात्र है। शुरू जवानी में कुछ ग़ज़लें कही थी और दो मसनवियाँ 'शबेग़म' और 'शबे बरल' लिखीं जो