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राणा प्रताप
 


कसम खाओ कि हमारा यह प्यारा देश तुर्कों के कब्जे में न जायगा। तुम्हारी रगों में जब तक एक बूँद भी रक्त रहेगा, तुम उसे तुर्कों से बचाते रहोगे। और बेटा अमरसिंह, तुमसे विशेष विनती है कि अपने बाप दादों के नाम पर धब्बा न लगाना और स्वाधीनता को सदा प्राण से अधिक प्रिय मानते रहना। मुझे डर है कि कहीं विलासिता और सुख की कामना तुम्हारे हृदयों को अपने वश में न कर ले और तुम मेवाड़ की उस स्वाधीनता को हाथ से खो दो, जिसके लिए मेवाड़ के वीरों ने अपना रक्त बहाया।' संपूर्ण उपस्थित सरदारों ने एक स्वर से शपथ की कि जब तक हमारे दम में दम है, हम मेवाड़ की स्वाधीनता को कुदृष्टि से बचाते रहेंगे। प्रताप को इतमीनान हो गया और सरदारों को रोता-बिलखता छोड़ उसकी आत्मा ने पार्थिव चोले को त्याग दिया। मानो मौत ने उसे अपने सरदारों से यह कसम लेने की मुहलत दे रखी थी।

इस प्रकार उस सिंह-विक्रम राजपूत के जीवन का अवसान हुआ जिसकी विजय की गाथाएँ और विपदा की कहानियाँ मेवाड़ के बच्चे-बच्चे की जबान पर हैं। जो इस योग्य है कि उसके नाम के मंदिर गाँव-गाँव, नगर-नगर में निर्माण किये जायँ और उनमें स्वाधीनता देवी की प्रतिष्ठा तथा पूजा की जाय। लोग जब इन मंदिरों में जायँ तो स्वाधीनता का नाम लेते हुए जायँ। और इस राजपूत की जीवन-कथा से सच्ची आज़ादी का सबक सीखें।