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कलम, तलवार और त्याग
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मिसलें कायम हो गई थीं, जिनमें दिन-रात मार-काट मची रहती थी। जिस विशेष लक्ष्य को लेकर सिख जाति उत्पन्न हुई थी, वह यद्यपि कुछ अंशों में पूरा हो चुका था, पर उसकी पूर्ण सिद्धि के पहले ही खुद उन्हीं में फूट फैलानेवाली ताकतों ने जोर पकड़ लिया और मुख्य उद्देश्य उपेक्षित हो गया। १८ वीं शताब्दी के अन्त में मुल्क की हालत बहुत नाजुक हो रही थी। निरंकुशता और उच्छृंखलता का राज था। जिस किसी ने कुछ लुटेरे सिपाहियों को जमा कर एक दल बना लिया, वह अपने किसी कमजोर पड़ोसी को दबाकर अपनी चार दिन की हुकूमत कायम कर लेता था, और कुछ दिन बाद उसे भी किसी अधिक बलवान व्यक्ति के लिए जगह खाली करनी पड़ती थी। न कोई क़ानून था, न कोई सुव्यवस्थित शासन। शति और लोकरक्षा अनाथ बच्चों की भाँति आश्रय ढुंढती फिरती थीं। हर गाँव का राजा जुदा, कानून जुदा और दुनिया जुदी थी। भाईचारा सिख़-वंश की एक प्रमुख विशेषता है। और केवल वही क्या, सभी धर्मों, मजहबों में मानव बन्धुत्व की शिक्षा विद्यमान है। यह शिक्षा उच्च और पवित्र है। किसी आदमी को क्या हक है कि दूसरों को अपना अधीन बनाकर रखे और उनके अस्तित्व से खुद फायदा उठाये ? संसार के सुखों में हर आदमी का हिस्सा बराबर है। सिख जाति ने जब तक इस भाव का आदर किया, इसे बरता और इसका अनुसरण किया, तब तक उसका बल बढ़ता गया, पर जब अहंकार और स्वार्थ-परता, लोभ और दंभ ने सिखों के दिलों में घर कर लिया, धन और अधिकार की चाट पड़ी, तो भाईचारे के भय को गहरा धक्का पहुँचा, जिसका फल यह हुआ कि राज्यों की स्थापना हो गई और भाई-भाई में मार-काट मचने लगी। गुरु गोविन्दसिंह ने भाईचारे का जोश पैदा किया, पर उसे पारस्परिक सहानुभूति का बल न उत्पन्न कर सके जो भाईचारे के कवच का काम करता है।

रणजीतसिह का जन्म सन् १७८० ई० में गुजरानवाला स्थान में हुआ, आम खयाल है कि उनके पिता एक गरीब जमींदार थे, पर