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रणजीतसिंह
 

यह ठीक नहीं है। उनके पिता सरदार महानसिंह सकर चकिया मिसिल के सरदार और बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। पर २७ ही वर्ष की अवस्था में स्वर्ग सिधार गये। रणजीतसिंह उस समय कुल जम १० साल के थे और इसी उम्र में उनके सिर पर भयावह ज़िम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा। परन्तु अकबर की तरह वह भी प्रबन्ध और संघठन की योग्यता माँ के पेट से लेकर निकले थे, और इस दस वर्ष की वय में ही कई लड़ाइयों में अपने पिता के साथ रह चुके थे। एक दिन एक भयानक युद्ध में वह बाल-बाल बचे। मानो उनका शैशव रणक्षेत्र में ही बीता और युद्ध के विद्यालय में ही उन्होंंने शिक्षा पाई। ८-१० साल का बच्चा, उसकी आँखों से नित्य मार-काट के दृश्य गुजरते होंगे। कुटुम्ब के बड़े-बूढ़ों को चौपाल में बैठकर किसी पड़ोसी सरदार पर हमला करने के मंसूबे बाँधते या किसी बलवान् सरदार के आक्रमण से बचाव के उपाय सोचते देखता होगा और यह अनुभव उसके कोमल संस्कारग्राही चित्र पर क्या कुछ छाप न छोड़ जाते होंगे। परवर्ती घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि यह अल्पवयस्क बालक तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभावान् था, और जो शिक्षाएँ उसे मिलीं, उसके जीवन का अंग बन गई। उसने जो कुछ देखा, शिक्षा ग्रहण करनेवाली दृष्टि से देखी। १२ वर्ष की अवस्था में वह सकर चकिया मिसिल के सरदार करार दिया गया और २० वें साल में कुछ अपनी बहादुरी और कुछ जोड़-होड़बाजी से लाहौर का राजा बन बैठा। इसका वृत्तान्त मनोरंजक है। सन् १७९८ ई॰ में अहमदशाह अब्दाली का पोता अपने दादा के जीते हुए प्रदेशों पर अधिकार-स्थापन के इरादे से हिन्दुस्तान पर चढ़ा और लाहौर तक चला आया। उसका विचार था कि टिककर संबद्ध स्थानों से खिराज वसूल करे। पर इसी बीच उसे स्वदेश में विप्लव की खबर मिली। घबराकर लौटा। झेलम बाढ़ पर थी, बारबरदरी का इन्तजाम खराब। उसकी कई तोपें उसके साथ न जा सकीं। संयोगवश रणजीतसिंह वहीं पास में ही थे। शाहजमां से मिले तो उसने कहा–अगर तुम मेरी तोपें फारस