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कलम, तलवार और त्याग
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ने इसके जवाब में कहा- जनाब! मेरे प्रतापी स्वामी के चेहरे पर वह तेज है कि इसमें से किसी को इतना साहस ही न हुआ कि उनकी और आँख उठा सकें। उत्तर यद्यपि अतिरंजना में रहित ने था, फिर भी उससे रणजीतसिंह के उस रोज का पता चलता है जो दरवारवालों के दिलों पर छाया हुआ था।

रणजीतसिंह जन्म सिद्ध शासक थे। उनमें कोई ऐसा गुण, कोई, ऐसी शक्ति, कोई ऐसी अकर्षण था जो बड़े-बड़े हेकड़ों और अहम्मन्थों को भी उनकी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य कर देता था। अदमियों को परखने की उनमें जबर्दस्त योग्यता थी और उनकी सफलता की बहुत बड़ा कारण उनकी यही गुण थी! कौन आदमी किस काम को औरों से अच्छी तरह कर सकता है, इसका निर्णय करना आसान बात नहीं हैं। शाहजहाँ, जहाँगीर, औरंगजेब बड़े-बड़े ‘बादशाह थे पर उनके राजत्व में आये दिन बगावते और साजिशें होती रहती थीं, और सूबेदारों को दबाने के लिए अक्सर दिल्ली से फौजे रवाना करनी पड़ती थीं। रणजीतसिंह के राज्यकाल में ऐसी घटनाएँ कचित् ही होती थीं। उस उथल-पुथल के जमाने में भी उनके कर्मचारी कितनी सचाई से काम करते थे यह देखकर आश्चर्य होता है। महाराज धर्मगत निष्पक्षता के सजीव उदाहरण थे, खासकर राजकर्मचारियों के चुनाव में इस राग-द्वेष को जरा भी दल न देने देते थे। इस नीति में वह अकबर से भी बढ़े हुए थे। सिखों को मुसलमानों से कोई लाभ ना पहुँचा था, बल्कि उल्टा उन्होंने सिखों की अस्तित्व मिटा देने में कोई यत्न नहीं उठा रखा था, पर रणजीतसिंह इस संकीर्णता से सर्वथा मुक्त थे। उनके दरबार में कई प्रमुख पद पर मुसलमान नियुक्त थे। फकीर अजीजुद्दीन, नूरुद्दीन, इमामुद्दीन सब के सब में ऊंचे पदों पर थे। ब्राह्मण, खत्री, राजपूत, हरएक जाति से उन्होंने राय- प्रबन्ध में सहायता ली। जहाँ भी उन्हें गुण दिखाई दिया, उसकी कद्र की। राजा दीनानाथ, दीवान सुहकमचन्द, रामपाल मिश्र, दीवान साँवलमल, लाहौर दरबार के स्तंभों में थे और बड़े बड़े महत्व के कार्यो