पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५ ]
रणजीतसिंह
 


पर नियुक्त थे। रणजीतसिंह की सूक्ष्मदर्शी दृष्टि ने ताड़ लिया था कि अगर न्याय और क्षेम-कुशल की नीति से राज्य करना है तो उन जातियों की सहायता के बिना काम नहीं चलेगा जो बहुत दिनों से राज्य-कार्य में भाग लेती आई हैं। सिखों ने इस समय तक युद्ध-क्षेत्र के सिवा शासन-प्रबन्ध में अपनी योग्यता का परिचय नहीं दिया था। अतः सैनिक-पद अधिकतर सिखों के हाथ में थे। दीवानी और माल के पद मुसलमानों, ब्राह्मणों, खत्रियों और कायस्थों के हाथ में थे, पर फौजी चढ़ाइयों में सेनापति अक्सर उपयुक्त अधिकारी ही बनाये जाते थे। उस समय से अब तक इस निष्पक्षता को निभाना सिख राजाओं ने अपना सिद्धान्त बना रखा है, खासकर नाभा, पटियाला, कपूरथला और झींद में, जो सिखों की सबसे बड़ी रियासते हैं, यह उदार विचार विशेष रूप से दिखाई देता है। हाँ, इसलामी रियासतों में स्थिति इसकी उलटी है। हैदराबाद को छोड़कर जहाँ एक हिन्दू सज्जन मन्त्री के पद पर प्रतिष्ठित हैं, और शायद कोई ऐसी रियासत नहीं जहाँ इस धर्म-गत उदारता से काम लिया जाता हो। हिन्दुओं को कट्टर और अनुदार कहना सहज है, पर वस्तुस्थिति इसकी उलटी है। अभी हाल में ही महाराज जयपुर में एक मुसलमान सज्जन को दीवान बनाया है। क्या यह हिन्दुओं की संकीर्णता है ?

उस जमाने में अकसर अदूरदर्शी नरेशों की यह रीति थी कि शत्रु पर विजय पाने के बाद उसे मटियामेट कर देते या ऐसा कठोर व्यवहार करते कि उसके हृदय में प्रतिहिंसा और द्वेष की आग भड़कती रहती थी। पर रणजीत सिंह की नीति इस विषय में मनुष्यता और भद्रता की नीति थी, जो यद्यपि आज की रीति-नीति के अनुसार साधारण व्यवहार है, पर उस तूफानी ज़माने का ख़याल करते हुए अति असाधारण बात थी। रणजीतसिंह शत्रु पर विजय पाने के बाद उसके साथ ऐसे सौजन्य और शिष्टता का व्यवहार करते कि वह उनकी दोस्ती का दम भरने लगता। कठोरता के बदले वह उसे सौजन्य और अनुग्रह की साँकल में बाँधते थे। कई बार घेरा डालने के बाद