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कलम, तलवार और त्याग
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मुलतान पर उनका कब्जा हुआ और नवाब मुजफ्फर खाँ अपने पांच बेटी तथा तीन सौ स्वजनों के साथ किले के दरवाजे पर मारा गया, तो उन्होने नवाब के दो बाकी लड़को को दरवार में बुला लिया और उनके वज़ीफे मुक़र्रर कर दिये। इसी तरह मुहम्मद यार खाँ निवाना और दूसरे पराजित सरदारों के साथ भी उन्होने भलमनसी का बरताव कायम रखी। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि शत्रु को जीतने के बाद उन्होंने उसे जिंदा दीवार मे चुनवा दिया हो, खुलेआम शिरच्छेद करा दिया हो या उन पर बुद्ध की बुखार निकाला हो। अकसर उन्हीं पराजित शत्रुओ पर उनका अनुग्रह होता था, जिन्होने मर्दानगी से उनका मुक़ाबला किया हो। वह स्वय वीर पुरुष थे और वीरता का आदर करते थे। जोधसिंह वजिरावाद का एक सिख सरदार था। किसी कारण महाराज उस पर नाराज हुए और उसे दंड देना चाहा। पर इसके लिए सेना भेजी जाय, यह पसन्द न करते थे। अतः उसे बहाने से दरबार में बुलाया और गिरफतार करना चाहा। जोधसिंह ने तुरत तलवार खीच ली और मरने-मारने को तैयार हो गया। महाराज उसकी मर्दानगी पर इतने खुश हुए कि उसी जगह उसका प्रेमालिंगन किया, और जब तक वह ज़िन्दा रहा उसे मानते रहे।

रणजीत सिंह के पहले सिख-सेना अधिकतर सवारों की होती थी, पैदछ तिरस्कार की दृष्टि से देखे जाते थे। इनके विरुद्ध यूरोप में पैदल सेना ही युद्ध का आधार होती थी और हैं। अँग्रेजी पैदल सेना अनेक बार हिन्दुस्तानी घोड़सवारों के पैर उखार चुकी थी। यह देखकर महाराज ने भी अपनी सेना की कायापलट कर दी। सवारों के बदले पैदल सेना का संघटन आरंभ किया और इस कार्य के लिए फ्रांस और इटली के कई अनुभव जनरलों को नियुक्त किया जिनमें से कई नेपोलियन बोनापार्ट के तिलिस्मी युद्धों में शरीक रह चुके थे। जेनरल वंचूर उनमें सबसे अधिक कुशल था। इस सेना-नायकों के शिक्षण ने सिख पैदल. सेना को यूरोप की अच्छी से अच्छी सेना को