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राणा प्रताप

राजस्थान के इतिहास का एक-एक पृष्ठ साहस, मर्दानगी और वीरोचित प्राणोत्सर्ग के कारनामो से जगमगा रहा है। बापा रावल, राणा सांगा, और राणा प्रताप ऐसे-ऐसे उज्ज्वल नाम हैं कि यद्यपि काल के प्रखर प्रवाह ने उन्हें धो बहाने में कोई कसर नहीं उठा रखी, फिर भी अभी तक जीवित हैं और सदा जीते तथा चमकते रहेंगे। इनमें से किसी ने भी राज्यों की नींव नहीं डाली, बड़ी बड़ी विजयें नहीं प्राप्त कीं, नये राष्ट्र नहीं निर्माण किये, पर इन पूज्य पुरुषों के हृदयों में वह ज्वाला जल रही थी जिसे स्वदेश-प्रेम कहते हैं। वह यह नहीं देख सकते थे कि कोई बाहरी आये और हमारे बराबर का होकर रहे। उन्होंने मुसीबतें उठाईं, जानें गँवाईं पर अपने देश पर कब्जा करनेवालों के कदम उखाड़ने की चिन्ता में सदा जलते-जुड़ते रहे। वह इस नरम विचार वा मध्यम वृत्ति के समर्थक न थे कि 'मैं भी रहूँ और तू भी रह।' उनके दावे ज्यादा मर्दानगी और बहादुरी के थे कि 'रहें तो हम रहें या हमारे जातिवाले, कोई दूसरी कौम हर्गिज़ कदम ने जमाने पाये।' उनकी कार्यावली इस योग्य है कि हमारे धार्मिक साहित्य का अंग बने। इस समय हम केवल राणा प्रताप का जीवनवृत्तान्त पाठकों को भेंट करते हैं। जो जब तक जीवित रहा, अकबरी दबदबे का सामना करता रहा। उस वक्त जब कोटा, जैसलमेर, अम्बर, मारवाड़ सभी देशों के नरेश दरबार अकबरी की जय मनानेवाले या उसके आश्रित बन चुके थे, यह वीरत्व-वन-केसरी, यह अध्यवसाय-नद का मगरमच्छ, यह दृढ़तापथ का पथिक अकेले दम पर उनकी सम्मिलित शक्ति का सामना करता रहा। पहाड़ों के दर्रों और पेड़ों के खोखलों