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कलम, तलवार और त्याग
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१८३७ ई० की है। उस समय जंगबहादुर २१ साल के थे। पद का चार्ज ले लिये जाने के बाद वह भागकर बनारस आये और यहाँ दो साल तक इधर-उधर मारे मारे फिरते रहे। अन्त में जब कहीं आश्रय न दिखाई दिया तो १८३९ ई० में फिर नैपाल गये। तब तक वहाँ थापा लोगों के विरुद्ध भड़की हुई क्रोधाग्नि ठंढी हो चुकी थी और जंगबहादुर को किसी ने रोक-टोक न की। यहाँ इन्हें अपना शौर्य-साहस दिखाने के कुछ ऐसे मौके मिले कि महाराज ने प्रसन्न होकर उन्हें बहाल कर दिया। अबकी वह युवराज सुरेन्द्र विक्रम के मुसाहब बना दिये गये। पर जंगबहादुर के लिए यह नौकरी बहुत ही भयावह सिद्ध हुई। युवराज सुरेन्द्र विक्रम एक झक्की, कमजोर दिमाग का विक्षिप्त नवयुवक था और उसे क्रूरता के दृश्य देखने की सनक थी। अपने मुसाहबौं से ऐसे-ऐसे कामों की फरमाइश करता कि उनकी जान पर ही आ बीतती। जंगबहादुर को भी कई बार इन जानलेवा परीक्षाओं मैं पड़ना पड़ा, पर हर बार वह कुछ तो अपने सैनिकोचित अभ्यास और कुछ सौभाग्य की सहायता से बच गये। एक बार उन्हें ऊँचे पुल पर से नीचे तूफानी पहाड़ी नदी में कूदना पड़ा। इसी प्रकार एक बार उन्हें एक ऐसे गहरे कुएँ में कूदने का हुक्म हुआ जिसमें उन भैसों की हद्भुियाँ जमा की जाती थीं जो विशेष पर्वोत्सव में बलि किये जाते थे। इन दोनों कठिन परीक्षाओं में अपनी मौत से खेलनेवाली हिम्मत की बदौलत वे उत्तीर्ण हो गये। कुशल हुईं कि उन्हें इस नौकरी पर केवल एक साल रहना पड़ा। १८४१ ई० में उनके पिता की मृत्यु हुई और वह महाराज राजेन्द्र विक्रम के अंगरक्षक (डीगार्ड) नियुक्त हुए।

युवराज सुरेन्द्र विक्रम को क्रूरता का उन्माद दिन-दिन बढ़ता गया। दूसरों को एड़ियाँ रगड़कर मरते देखने में उसे मजा आता था। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी ही रानियों को पालकी समेत नदी मैं डुबवा दिया। महाराज स्वयं दुर्बलचित्त, अदूरदर्शी, ना समझ आदमी थे। राज्य का प्रबन्ध बड़ी रानी किया करती थीं और उनका दबाव कुछ-कुछ युवराज को भी मानना पड़ता था। पर अक्तूबर सन्