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कलम, तलवार और त्याग
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क्रोध, प्रतिहिंसा या राज्य का हित-यही कारण हैं जिनसे ऐसी हत्याओं का औचित्य दिखाया जा सकता है. पर यहाँ इनमें से एक भी विद्यमान न था। दूसरे को अंग्रेज़ी मुहावरे में ‘ठंडे खून को क़तल' कहना चाहिए। पद और अधिकार के लोभ से उन्हें अपने सगे मामा की हत्या में भी आगा पीछा न हुआ।

मोतबरसिंह की हत्या से देश में हलचल मच गई। पर हत्या• करने वाले का पता न चल सका। इधर महारानी का उद्देश्य भी सिद्ध न हुआ। मंत्रिपद के दावेदार अकेले गगनसिंह ही नहीं, और भी थे। जंगबहादुर इस समय एक सम्मानित सैनिक-पद पर आसीन थे। तीन रेजिमेंटज खास उन्हीं की भरती की हुई थीं जो उनके सिवा और किसी का हुक्म मानना जानती ही न थीं। उनके कई भाइयों को भी सेना में ऊँचे पढ़ मिल गये थे। अतः दरबार में उनका खासा प्रभाव स्थापित हो गया था। इस पर मोतबरसिंह के वध का पुरस्कार उनकी दृष्टि से मंत्रित्व के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता था, फल यह हुआ कि गगनसिंह को सेना के एक पद पर ही संतोष करना पड़ा और मंत्रिपद पांडेवंश के सरदार फतहजंग को दिया गया। पर यह स्थिति अधिक दिन न रह सकी। गगनसिंह महाराज की आँखों में कांटे की तरह खटकता था। वह किसी तरह उसे जहन्नुम भेजना थाहते थे। पर रानी के डर से लाचार थे। आखिर यह जलन न सही गई और उन्हीं के इशारे से एक साज़िश हुई जिसमें गगनसिंह को खत्म कर देने का निश्चय हुआ। और एक दिन वह अपने मकान पर ही गोली का निशाना बना दिया गया।

गगनसिंह का मारा जाना था कि दरबार में मानो प्रलय उपस्थित हो गया। लक्ष्मी देवी इस काण्ड की सूचना पाते ही रनिवास से बफरी हुई शेरनी की तरह हाथ में नंगी तलवार लिये हुए निकलीं और सीधे गगनसिंह के मकान पर चली गई। प्रतिहिंसा की आग उनके हृय में भड़क उठी। रात को फ़ौजी बिगुल बजा। रानी का उद्देश्य यह थी कि सब सरदारों को जमा करके इनमें हत्या करनेवाले