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राणा जंगबहादुर
 


को ढूंढ़ निकालें। जंगबहादुर ने विगुल सुनते ही दुर्घटना की आशंका पर अपनी सेना को तैयार होने का हुक्म दिया, और इसलिए सबसे पहले राजमहल में पहुँच गये। उनकी सेना ने रनिवास को घेर लिया। रानी साहिबा घबराई, पर जंगबहादुर ने उन्हें अश्वासन दिया। धीरे-धीरे और सरदार भी जमा हुए और सारा आँगन उन लोगों से भर गया। रानी ने एक सरदार को हत्या का अपराधी बताकर उसके वध 'की आज्ञा दी। इस पर सरदारों में कानाफूसी होने लगी। एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता था। दूसरे सेना-नायकों ने भी अपनी सेनाओं को महल के क़रीब बुलाना चाहा। आपस में कठोर शब्दों का प्रयोग होने लगा, जंगबहादुर के एक पहरेदार ने एक सेनानायक को जो अपनी सेना से मिलने के लिए बाहर जाना चाहता था, क़तल कर दिया। फिर क्या था, मारकाट मच गई। कितने ही सरदार उसी आँगन में तलवार के घाट उतार दिये गये। प्रधान मंत्री न बच सके। अंत में जंगबहादुर की सेना ने शांति स्थापित की है और सरदार लोग अपने-अपने स्थान को वापस गये। इस गृहयुद्ध ने जंगबहादुर के लिए मैदान साफ़ कर दिया। उनके प्रतिस्पर्द्धीयों में से कोई बाक़ी न रहा। १५ सितम्बर, सन् ४१ को यह काण्ड हुआ, दूसरे दिन महारानी ने उन्हें बुलाकर प्रधान मन्त्रित्व का अधिकार सौंप दिया। इस प्रकार निविड़ अंधकार के बाद उनके भाग्य-भास्कर का उदय हुआ।

पर इस कठिन काल में यह पद जितना ही ऊँचा था, उतना ही भयावह भी था। महाराज को जंगबहादुर का प्रधान मन्त्री होना पसन्द न था। उनको सन्देह था कि इस मारकाट का कारण वही हैं। रानी भी अपने मतलब में थीं। वह जंगबहादुर की सहायता से अपने लड़के को गद्दी पर बिठाना चाहती थीं। इधर गगनसिंह के समर्थक शुभचिन्तक भी उनकी जान के ग्राहक हो रहे थे। जंगबहादुर ने कई महीने तक रानी की आज्ञाओं का बेउञ्ज पलन किया। यहाँ तक कि युवराज और उनके भाई को जेल में डाल दिया। यद्यपि इनमें उनकी उद्देश्य यह था कि दोनों भाई रानी के कुचक्रों से सुरक्षित रहें। रानी