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कलम, तलवार और त्याग
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में छिप-छिपकर उस अनमोल हीरे को दुश्मन के हाथ में पड़ने से बचाता रहा जिसको जातीय स्वाधीनता कहते हैं। जब मरा तो उसके पास अपनी वज्रघातिनी तलवार और थोड़े-से सच्चे साथियों के सिवा राजसिक वैभव का और कोई सामान न था, जितने मित्र और सहायक थे सब या तो सत्-धर्म का पालन करते हुए वीरगति प्राप्त कर चुके थे, या अकबरी इकबाल का दम भरने लगे थे, पर यह अकिंचन मृत्यु उस सुनहरे सिहासन पर तथा मित्र शुभचिन्तकों के उस जमघट में मरने से हजार दर्जे अच्छी है जो जाति की स्वाधीनता, आत्मा की दासता और देश के अपमान के बदले में मिले हों।

प्रताप उदयसिंह का बेटा और शेरदिल दादा सांगा का पोता था। राणा सांगा और बाबर के संग्राम इतिहास के पृष्ठो पर अंकित हैं, यद्यपि राणा की पराजय हुई, पर स्वदेश की रक्षा में अपना रक्त बहाकर उसने सदा के लिए अपना नाम उज्ज्वल कर लिया। उसका बेटा उदयसिंह बाप के वीरोचित गुणों का उत्तराधिकारी न था। कुछ दिनों तक तो वह चित्तौड़ को मुगलो के द्वारा पदाक्रांत होने से बचाता रहा, पर ज्यों ही अकबर के तेवर बदले देखे, शहर जगमल को सिपुर्द करके अरौली की पहाड़ियों में जा छिपा, और वहाँ एक नये नगर की नींव डाली जो आज तक उसके काल से उदयपुर मशहूर हैं। जगमल ने जिस वीरता से शत्रु का सामना किया, चित्तौड़ के सब वीर जिस तरह सिर हथेली पर रखकर दुश्मन को हटाने के लिए तैयार हुए, चित्तौड़ की सुकुमार ललनाओ ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जिस दृढ़ता से अग्निकुण्ड में कूदकर जल मरने को श्रेयस्कर समझा—यह बातें आज सबकी जबान पर हैं और ऐतिहासिकों की लेखनियाँ उनकी चर्चा में सदा आनन्द से थिरकती रहेंगी।

उधर भगोड़ा उदयसिंह अपने पहाड़ी किले में अपने साथियों सहित जीवन बिताता रहा। महाराणा प्रताप ने इन्हीं पहाड़ियों के बीच प्राकृतिक दृश्यों से शिक्षा पाई। शेरों से मर्दानगी का तो पहाड़ों से अपने संकल्प पर अटल रहने का पाठ पढ़ा। पिता की मृत्यु होने