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कलम, तलवार और त्याग
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दो समृद्ध जिले उन्हें सौंप दिये और महाराज की उपाधि भी प्रदान की। जंगबहादुर इन जिलों के स्वाधीन नरेश बना दिये गये और प्रधान मन्त्री का पद भी वशगत बना दिया गया। इस अनुग्रह-अनुरोध से विवश होकर जंगबहादुर आरोग्य लाभ होते ही प्रधान मन्त्री की कुरसी पर जा विराजे!

इसी समय हिन्दुस्तान में विश्व की आग भड़क उठी। बारियों का बल बढ़ते देख तत्कालीन वायसराय लार्ड केनिंग ने जंगबहादुर से मदद माँगी। उन्होने तुरंत ही रेजीमेंटे रवाना कर दी और थोड़े समय बाद स्वयं बड़ी सेना लेकर आये। गोरखपुर, आजमगढ़, बस्ती, गोंड़ा आदि में बारियों के बड़े-बड़े दलो को छिन्न-भिन्न करते हुए लखनऊ पहुँचे और वहाँ से बारियों को निकालने में बड़ी मुस्तैदी से अंगरेज अफसरों की सहायता की। उनकी धाक ऐसी बैठी कि बारी उनका नाम सुनकर थर्रा जाते थे। इस प्रकार विप्लव का दमन करके यह नैपाल वापस गये। पर जब वारियों का एक बड़ा दल आश्रय के लिए नैपाल पहुँचा तो जंगबहादुर ने उनके विवाह के लिए काफी जमीन दे दी। उनकी सन्तान आज भी तराई, मैं आबाद है।

जंगबहादुर ने सन् १८७६ ई० तक राजकाज सम्हाली और देश में अनेक सुधार किये। जमीन का बन्दोबस्त और उत्तराधिकार विधान का संशोधन उन्हीं की बुद्धिमानी और प्रगतिशीलता के सुफल हैं। उन्हीं के सुप्रबन्ध की बदौलत फूट-फसाद दूर होकर देश सुखी-सम्पन्न बना। जहाँ हाकिम की मरजी ही क़ानूनी थी, वहाँ उन्होंने राज्य के हर विभाग को नियम और व्यवस्था से बाँध दिया।

जंगबहादुर बहादुर चित्त और नियम-निष्ठ राजनीतिक थे। इसमें संदेह नहीं कि प्रधान मन्त्रित्व प्राप्त करने के पहले उन्होंने सो सत्य और न्याय को अपनी नीति नहीं बनाया, फिर भी उनकी मंत्रित्व छाछ नैपल के इतिहास का उज्ज्वल अंश है। वह राजपूत थे और राजपूती धर्म को निभाने में गर्व करते थे। सिख राज्य के हास के बाद महारानी चंद्रकुंज़र चुनार के किले में नजरबंद की गयी। पर