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कलम, तलवार और त्याग
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स्वाधीन थे। इंगलैण्ड के प्रवास-काल में वह किसी दावत में खाने के लिए शरीक नहीं हुए। वह आवश्यक और अनावश्यक सुधार में भेद करना जानते थे। निडर ऐसे थे कि न्याय के प्रश्न पर स्वयं महाराज का भी विरोध करने में नहीं चूकते थे। प्रजा को राजकर्मचारियों के उत्पीड़न से बचाने का यत्न करते थे और किसी कर्मचारी को पकड़ पाते तो कड़ी सजा देते थे।

सारांश, उस जमाने में राणा जंगबहादुर की दम गनीमत थी। ऐसे राजनीतिज्ञ हिन्दुस्तान की दूसरी रियासतों में होते तो संभव हैं, उनमें से कुछ आज भी जीवित होती है पंजाब, सतारा, नागपुर, अवधे, वरमा आदि इसी काल में अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित हुए। संभव है कि अंग्रेज सरकार कुछ अधिक सहनशीलता दिखाती तो कदाचित् उनका अस्तित्व बना रहता, पर खूद उन राज्यों में ऐसे नैतिज्ञ या शासक न थे, जो उन्हें इस भयानक भंवर से सही-सलामत निकाले जाते। यद्यपि सारा नैपाल जंगबहादुर पर जान देता था और उनके बल-प्रभाव के सामने महाराज भी दब गये थे, फिर भी राज्य के सरदारों के बहुत आग्रह करने पर भी, राजा के करने के कामों को उन्होंने सदा अपने मन से दूर रखी। उस काल में भारत के दुसरे राज्यों के कर्णधारों में जैसा संघर्ष और खींचातानी चल रही थी, उसे देखते हुए इस देश के लिए जंगबहादुर की आत्मत्याग इसे कह सकते हैं।

१८७६ ई० के फरवरी महीने में जंगबहादुर शिकार खेलने गये थे। वहीं ज्वर-ग्रस्त हुए और साधारण-सी बीमारी के बाद २५ फरवरी को इस नश्वर संसार से विदा हो गये।