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कलम, तलवार और त्याग
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ओर हो जाते थे। सार यह कि बिगाड़ और विनाश की सारी सामग्री एकत्र थी। ऐसी अवस्था में वह शेरखाँ की मचलती महत्त्वाकांक्षा, प्रौढ़ नीतिकौशल और दृढ़ संकल्प के सामने टिकता तो क्योंकर। नतीजा वही हुआ जो पहले से दिखाई दे रहा था। शेरखाँ का बल- प्रताप बढ़ा, हुमायूँ को घटा। अन्त को इसे राज्य से हाथ धोकर जान लेकर भागने में ही कुशल दिखाई दी। वह समय भी कुछ विलक्षी विपद और असहायता का था। हुमायूँ कभी घबराकर बीकानेर और जैसलमेर की मरुभूमि में टकराती फिरता था, कभी क्षीण-सी आशा पर जोधपुर के पथरीले मैदानों की ओर बढ़ता था, पर विश्वासघात दूर से ही अपना डरावना चेहरा दिखाकर पॉव उखाड़ देता था। दुर्भाग्य की घटा सब ओर छाई हुई हैं। खून सफेद हो गया है। भाई भाई के खाने को दौड़ता है। नाम के मित्र बहुत हैं, पर सहायता का समय आया और अनजान बने, आशा की झलक भी कभी-कभी दिखाई दे जाती हैं, पर सुरत ही नैराश्य के अन्धकार में लुप्त हो जाती है। हद हो गई कि जब रास्ते में हुमायूं का घोड़ा चल बसी तो वज्रहृदय तरदी बेग ने जो उसके बाप का मित्र और खुद इसका मन्त्री था, इस विपदा के मारे बादशाह को अपने अस्तबल से एक घोड़ा देने में भी इनकार किया, जिसके कारण उसको उँट की उबर खाबड़ सवारी नसीब हुई। स्पष्ट है कि एक तुर्क के लिए जो मानो मा के पेट से निकलकर घोड़े की पीठ पर आँख खोलता है, इससे बढ़कर क्या विपत्ति हो सकती है। गनीमत हुई कि उसके एक दोस्त महीमखाँ को जो बेचारा अपनी बूढी मा को अपने धोड़े पर सवार करके खुद पैदल जा रहा था, दया आ गई और उसने अपना थोड़ी हुमायूँ की नज़र करके उसके ऊँट पर अपनी माँ को बिठा दिया। गजब यह है कि हालत तो ऐसी हो रही है कि रोंगटा रौंगटा दुश्मन मालूम होता है, धरती-आकाश फाड़ खाने को दौड़ता है, पर इस परदेश और विपकाल में हुमायूँ की चहेती बीबी हमीदा बानू बेगम भी साथ है। वह भी इस हाल में कि पूरे दिन हैं और हर कदम