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राणा प्रताप
 


तक स्वच्छन्द विचरण और आखेट के सिवा उसे और कोई काम न था। हाँ, अपने राज्य की बर्बादी, अपने समकालीन हिन्दू नरेशों की भीरुता, मुगल बादशाहों के दबदबे, और मेवाड़ घराने के बहादुरी के कारनामो ने उसके आनेवाले और उत्साह भरे हृदय को टहोके देदेकर उभार रखा था। पिता के निधन के बाद जब वह गद्दी पर बैठा तो गौरवमय मेवाड़ राज्य का अस्तित्व केवल नाम के लिए रह गया था। न कोई राजधानी थी, न सेना, न कोष। साथी-सहायक बार-बार हार खाते-खाते और परेशानियाँ उठाते-उठाते हिम्मत हार बैठे थे। प्रताप ने आते ही उनके दबे हुए हौसलों को उभारा, सुलगती आग को दहकाया, और उन्हें चित्तौड़ की बर्बादी तथा रक्तपात का बदला लेने के लिए तैयार किया। उसका भाव भरा हृदय कब इस बात को सहन कर सकता था कि जो स्थान उसके कीर्तिशाली पूर्वपुरुषो का निवास-स्थल रहा, जिसके दरोदीवार उनके रत्न से रँगे हैं, और जिसकी रक्षा के लिए उन्होने अपने प्राणों की बलि दी हो वह दुश्मन के कब्जे में रहे। और उनके बेअदब पैरों से रौंदा जाय। उसने अपने साथियों, सरदारों और आनेवाली पीढ़ियों को कसम दिलाई कि जबतक चित्तौड़ पर तुम्हारा अधिकार न हो जाय तुम सुख-विलास से दूर रहो। तुम क्या मुँह लेकर सोने-चाँदी के बर्तनों में खाओगे, और मखमली गद्दों पर सोओगे, जब कि तुम्हारे बाप-दादों का देश शत्रुओ के अत्याचार से रोता-चिल्लाता रहेगा? तुम क्या मुँह लेकर आगे नगाड़े बजाते और अपनी (सिसोदिया) जाति का झंडा ऊँचा किये हुए निकलोगे जब कि वह स्थल जहाँ तुम्हारे बाप दादों की नालें गड़ी है और जो उनके कीर्तिकलापों को सजीव स्मारक है, शत्रु के पैरों से रौंदा जा रहा है। तुम क्षत्रिय हो, तुम्हारे खून में जोश है, तुम क़सम खाओ कि जब तक चितौड़ पर अधिकार न कर लोगे, हरे पत्तों पर खाओगे, बोरियों पर सोओगे और नगाड़ा सेना के पीछे रखोगे, क्योंकि तुम मातम कर रहे हो, और यह बातें तुमको सदा याद दिलाती रहेंगी कि तुमको एक बड़े जातीय कर्तव्य का पालन करना है।