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कलम, तलवार और त्याग
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पर घेरा डालने में लगा हुआ था, एक मोरचे पर, जहाँ जोर-शोर से गोले बरस रहे थे, इस नन्ही-सी बात को बिठा दिया गया कि काल का आस बन जाय। पर धन्य हैं माहम के स्नेह और कर्तव्यनिष्ठा को कि उसको अपनी देह से छिपाकर मोरचे की ओर पीठ करके बैठ गई। स्पष्ट है कि ऐसी विपत्ति और परेशानी की हालत में पढ़ाई-लिखाई तो क्या किसी भी बात का प्रबन्ध नहीं हो सकता, और इसी लिए अकबर पिता की शिक्षाप्रद छाया से पृथक होकर साक्षरता से भी वंचित रह गया। पर जिस प्रकार असहायता की गोद में उसका पालन-पोषण हुआ उसी प्रकार उसकी शिक्षा-दीक्षा भी विपद के महाविद्यालय में हुई। और यह उसी का फल है कि आरंभ में ही उसमें वह उस मानवगुण उत्पन्न हो गये जो जीवन-संघर्ष में विजयलाभ के लिए अनिवार्य आवश्यक हैं। बारह बरस आठ महीने की उम्र में वह सरहिन्द की लड़ाई में शरीक हुआ, और अभी पूरे १४ साल का न होने पाया था कि हुमायूँ के अचानक परलोक सिधार जाने से उसको अनाथत्व का पद और राज्य का छत्र मिला। तारीख २ रबी उरसानी सन् ९६३ छिज्त्री (१५५६ ई०) को वह राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुआ है।

बादशाह बालक और राज्य–विस्तार नहीं के बराबर थे, पर उनके शिक्षक और संरक्षक बैरम खाँ की स्वामिभक्ति और कार्यकुशलता हर समय आड़े आने को तैयार रहती थी। आरंभ के युद्ध में बैरम खाँ ने बड़ी ही नीलि-कुशलता और वीरता का परिचय दिया। यह इसी का फल था कि अफगान षड्यन्त्रों की जड़ उखड़ गई और हिन्दुस्तान का काफ़ी बड़ा हिस्सा मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित हो गया है। पर चार बरस की खुद मुख्तारी ने कुछ तो बैरम खाँ का सिर फिराया और इधर वयोवृद्धि के साथ अकबर ने भी पर-पुरज़ निकाले और कुछ

  • राज्यारोहण के पहले ही वर्ष में जब पठानों का प्रसिद्ध सेनानायक हैमू (हेमचन्द्र) गिरफ्तार होकर आया, तो बैरम खाँ के आग्रह करने पर भी चञ्चमा अकबर ने अपनी तलवार को एक असहाय कैदी के रक्त से रंगना पसन्द न किया।