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अकबर महान
 


दूसरे सरदारों के हृदय में ईष्र्या की आग सुलगी, और उन्होंने तरह- तरह से बादशाह को शासन की लगाम अपने हाथ में लेने के लिए उभारा। नतीजा यह हुआ कि बैरम खाँ के प्रभाव का सूर्य अस्त हो गया और अकबर ने प्रत्यक्ष रूप से देश का शासन आरंभ किया। करीब १० साल तक अकबर हिन्दुस्तान के भिन्न-भिन्न सुबों को जीतने, अपने बागी सरदारो की साजिशो को तोड़ने और बगावतों को दबाने में लगा रहा है यहाँ तक कि पंजाब और दिल्ली के सूबो के सिवा, जो उसे विरासत में मिले थे, काबुल, कंधार, काश्मीर, सिंध, मेवाड़, गुजरात, अवध, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, अहमदनगर, मालवा और खानदेश सब उसकी राज्य-परिधि के भीतर आ गये। अर्थात् पच्छिम में उसके राज्य का डाँड़ा हिन्दूकुश से मिला हुआ था, और पूरब में बंगाल की खाड़ी से उत्तर में हिमालय से टकराता था, तो दक्षिण में पच्छिमी घाट से। ये विजयें केवल अकबर के सेना-नायको की रण- कुशलता का ही सुफल न थीं, बल्कि इनमें पूरे तौर से खुद भी उसने अपनी बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, मुस्तैदी, अथक परिश्रम, निर्भीकता और जागरूकता को प्रमाण दिया था। उसके सेनापति जब सुदूर प्रदेशों की चढ़ाई में लगे होते थे और वह जरा भी उनको गलत रास्ते की ओर झुकता हुआ देखता या उनकी कोशिश में ढिलाई पाता, तो अचानक बिजली की तरह, एक-एक हफ्ते की राह एक-एक दिन में तै करके उनके सिर पर जा धमकता था। मालवा, गुजरात और बंगाल की चढ़ाइयाँ आज तक उसकी मुस्तैदी और जवाँमद की गवाही दे रही हैं। उसकी दैव-दत्त प्रतिभा ने युद्ध-विद्या को जहाँ पायी वहीं नहीं छोड़ा, किन्तु उसकी प्रत्येक शाखा को और आगे बढ़ाया। आज के युग में तोपों के बनाने और उनसे काम लेने में जितनी प्रगति हुई है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं है, पर अकबर उस पुराने जमाने में ही उनकी अवश्यकता को जान गया था, और उसने एक ऐसी तोप ईजाद की थी जो एक शिताबे में १७ फैर करती थी। कुछ ऐसी तोपें भी बनवाई थीं, जिनके टुकड़े-टुकड़े करके एक जगह से दूसरी जगह आसानी