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कलम, तलवार और त्याग
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यह गर्व करने योग्य बात है कि उसने सन् ७ जुल्स(राज्यारोहण संवत्) में ही यह नियम बना दिया कि जो आदमी लड़ाई में कैद हो वह गुलाम न बनाया जाय। जो पहले से यह अवस्था प्राप्त कर चुके थे, उनका भी गुलामी का दास इस हद तक धो दिया कि उनके कुछ विशेष अधिकार निश्चित कर दिये और उनका नाम भी दास या गुलाम से बदलकर चेला कर दिया। इसी के साथ गुलामों की आम खरीद, बिक्री भी एकदम बन्द कर दी। इसके अगले साल यात्रियों से जो एक जबर्दस्ती का कर लिया जाता था, उसको उठा दिया। यह मानो प्रथम बार इस बात की घोषणा थी कि हर आदमी अपने धर्म-विश्वास की दृष्टि से स्वाधीन है और उसके स्वधर्माचरण में किसी प्रकार की रोक टोक न होनी चाहिए।

सन् ७ जुल्स में जो विचार कुछ दबी जबान में प्रकट किया गया था, अगले साल खूब जोर-शोर से उसकी घोषणा की गई, और अकबर ने ऐसा काम किया जसने वस्तुतः शासक और शासित का पद राज्य के सामने एक कर दिया। अर्थात् जिजिया माफ कर दिया। जिजिया वस्तुतः कोई वैसा कुत्सित कर नहीं था जैसा कि यूरोपियन इतिहासकारों ने समझा है, किन्तु वह विजित जाति से इसलिए लिया जाता था कि वह सैनिक सेवा से मुस्वसना होती थी। उद्देश्य यह था कि देश रक्षा के लिए विजेता जाति जिस प्रकार अपनी जान उड़ाती थी, विजित जाति उसी तरह अपने माल से उसमें मदद करे। भारत के इतिहास का ध्यान पूर्वक अध्ययन किया जाय तो मालूम होगा कि आरंभ में सरकार कंपनी बहादुर देशी राज्यों में जो सहायक सेना था काँटिजेंट (Contingant) के नाम से कुछ पलटने रखकर उनका खर्च वसूल किया करती थी, वह भी एक तरह का जिजिया ही था। और आज भी जो सैनिक या साम्राज्य-संवन्धी (इम्पीरियल) व्यय कहलाते हैं और जिनमे देशवासियों का कोई अधिकार या आवाज़ नहीं उनका नाम कुछ ही क्यों न रखा जाय, जिजिया की परिभाषा उन पर भी घटित हो सकती है। मुसलमानों में बहुत पुराने समय से अनिवार्य