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अकबर महान
 


भरती (Conseription) अर्थात् आवश्यकता के समय सैनिक रूप से काम करने की बाध्यता चली आ रही है। इस कारण मुस्तसना होने का अधिकार एक बहुत बड़ा हक़ था और संभव होता तो शायद बहुत-से मुसलमान भी उससे लाभ उठाते। पर चूँकि अकबर को उद्देश्य विजेता और विजित का भेद मिटाकर अपने शासन को स्वदेशी भारत की राष्ट्रीय सरकार बनाना था, जिसकी सच्ची उन्नति के लिए हिन्दुओं की प्रखर बुद्धि और शौर्य-साहस की वैसी ही आवश्यकता थी जैसी मुसलमानों की कार्य-कुशलता और वीरता की, और देश की शान्ति के रक्षण-पोषण में हिन्दू भी उसी प्रकार भाग लेने के अधिकारी थे, जिस प्रकार मुसलमान। इसलिए विजित और विजेता में जिजिया के द्वारा जो भेद स्थापित किया गया था, वह वास्तव में बाकी न रहा था और जिजिया वस्तुतः उत्पीड़क कर हो गया था, इसलिए उसने उसको उठाकर प्रजा के सब वर्गों की समानता की घोषणा की, यद्यपि अकबर ने हमारी उदार सरकार की तरह इस बात की घोषणा नहीं की थी कि राज्यकार्य में जाति, रंग या धर्म का कोई भेद-भाव में रखा जायगा, पर व्यवहारतः वह नियुक्तियों में, चाहे वह शासन विभाग की हों, चाहे सेना या अर्थ-विभाग की, अब्दुल्ला और रामदास में कोई भेद न करता था। यहाँ तक कि कोई भी पद ऐसा न था, जो हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए समान रूप से खुला हुआ न हो। उसकी निष्पक्षता का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि मानसिंह को खास सूबे काबुल की गवर्नरी को गौरव दिया जहाँ की आबादी सोलह आने मुसलमान थी। इसी प्रकार फौजी चढ़ाइयो का सेनापतित्व अगर खानखाना और खाँ आज़म को सौंपा जाता था तो भगवानदास और मानसिंह का दरजा भी उनसे कम न होता था, और शासन तथा अर्थ-प्रबन्ध के मामलों में अगर मुजफ्फर खाँ की सलाह से काम किया जाता था तो दोडरमल की सम्मति उससे भी अधिक दर की दृष्टि से देखी जाती थी। इसी तरह फैज़ी और अबुलफज़ल यदि दरबार