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अकबर महान
 


लिए आजकल के समाज-सुधारक जोर दे रहे हैं, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कोई नहीं सुनता। सती की क्रूर-कुत्सित प्रथा के अन्त का श्रेय भी अकबर को ही प्राप्त है। और अपने विधानों में उसको ऐसा प्रेम था कि जब राजा जयमल बंगाल की चढ़ाई में रास्ते में चाँसा पहुँचकर गत हो गया और उसके संबन्धियों ने उसकी रानी को सती होने पर विवश किया तो अकबर खुद लंबी मंजिलें 'मारकर वहाँ जा पहुँचा और उनको इस कुत्सित कार्य से बाज रखा।

विद्या आत्मा का आहार और जाति की उन्नति का आधार है। इसलिए अक़बर ने इस ओर भी पूरा ध्यान दिया और उपयुक्त पाठ्यक्रम निद्धरित करके शिक्षा-प्रणाली में भी ऐसे हितकर सुधार किये कि बक़ौल अबुलफजल के जो बात बरसों में हो पाती थी, वह महीनों में होने लगी। शराब, ताड़ी आदि पर कर लगाकर जनसाधारण के अनाचार को उसने अपना खजाना भरने का साधन नहीं बनाया, पर इसके साथ-साथ लोगों के वैयक्ति के जीवन में हस्तक्षेप न करने की नीति के अनुसार यह भी ताकीद कर दी कि अगर कोई छिपा-छिपाकर नशीली चीजों का इस्तेमाल करे तो उससे रोक-टोक न की जाय। वर्तमान काल में हमारे राजनीतिक सुधारक आबकारी कर और मादक द्रव्यों पर जैसी आपत्तियाँ किया करते हैं, उसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं, और न यह बताने की ही कि अकबर के प्रबन्ध पर वह कहाँ तक चरितार्थ हो सकती है। धान्य और पशुओं की वृद्धि तथा कला-कौशल की उन्नति के लिए उसने यह उपाय किया कि एक एक वस्तु की उन्नति के लिए एक-एक अधिकारी को जिम्मेदार बना दिया। और इस बात की निगरानी के लिए कि उन्होंने अपने उस विशेष कर्तब्य के पालन पर कहाँ तक ध्यान दिया, नौरोज के उत्सव के बाद खास शाही महल में एक बड़ा बाजार लगता था, जिसमें खुद बादशाह, प्रमुख अधिकारी और दरबारी तथा राज्ञकुल की महिलाएं खरीद-बिक्री करती थीं। हर आदमी अपना कमाल दिखाने की कोशिश करता था। इस बाजार को वर्तमान काल