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स्वामी विवेकानन्द
 


के गुणों का गान बड़ी श्रद्धा और उत्साह के स्वर में किया गया है।

स्वामी विवेकानन्द ने गुरुदेव के प्रथम दर्शन का वर्णन इस प्रकार किया है-

देखने में वह बिल्कुल साधारण आदमी मालूम होते थे। उनके रूप में कोई विशेषता न थी। बोली बहुत सरल और सीधी थी। मैंने मन में सोचा कि क्या यह संभव है कि यह सिद्ध पुरुष हों। मैं धीरे- धीरे उनके पास पहुँच गया और उनसे वह प्रश्न पूछे जो मैं अक्सर औरों से पूछा करता था।—“महाराज, क्या आप ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं ? उन्होने जवाब दिया---'हाँ'। मैंने फिर पूछा--- “क्या आप उसको अस्तित्व सिद्ध भी कर सकते है ? जवाब मिला-हाँ मैंने पूछा----“क्योंकर ?” जवाब मिला---'मैं उसे ठीक वैसे ही देखता हूँ जैसे तुमको।"

परमहंसजी की वाणी में कोई वैद्युतिक शक्ति थी जो संशयात्मा को तत्क्षण ठीक रास्ते पर लगा देती थी। और यही प्रभाव स्वामी विवेकानन्द की वाणी और दृष्टि में भी था। हम कह चुके हैं कि परमहंसजी के परमधाम सिधारने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने संन्यास ले लिया। उनकी माता उच्चाकांक्षिणी स्त्री थीं। उनकी इच्छा थी कि मेरा लड़का वकील हो, अच्छे घर में उसका ब्याह हो और दुनिया के सुख भोगे। उनके संन्यास-धारण के निश्चय का समाचार पाया तो परमहंसजी की सेवा में उपस्थित हुई और अनुनय-विनय की कि मेरे बेटे को जोग न दीजिए, पर जिस हृदय ने शाश्वत प्रेम और आत्मानुभूति के अनन्द का स्वाद पा लिया हो उसे लौकिक सुख-भोग कब अपनी ओर खींच सकते हैं! परमहंसजी कहा करते थे कि जो आदमी दूसरों को आध्यात्मिक उपदेश देने की आकांक्षा करे, उसे पहले स्वयं उस रंग में डूब जाना चाहिए। इस आदेश के अनुसार स्वामी हिमालय पर चले गये और वहाँ पूरे ९ साल तक तपस्या और चित्त-शुद्धि की साधना में लगे रहे। बिना खाये, बिना सोये, एकदम नग्न और एकदम अकेले सिद्ध महात्माओं की खोज में ढूंढते