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राणा प्रताप
 


विमुख होकर अकबर से आ मिला था, ऐसी अवस्था में कोई आश्चर्य नहीं कि जब राणा ने अपने विरुद्ध मुग़ल सेना की जगह अपनी ही जाति के सूरमाओं और घोड़सवारों को आते देखा हो, अपने ही भाइयों, अपने ही सगे बन्धुओं को तलवार खीचकर सामनें खड़ा पाया हो, तो उसकी तलवार एक क्षण के लिए रुक गई हो, तनिक देर के लिए वह खुद ठिठक गया हो और महाराज युधिष्ठिर की तरह पुकार उठा हो—'क्या मैं अपने भाई-बंदो से लड़ने के लिए आया हूँ? इसमें संदेह नहीं कि इन भाई-बंदो से वह कितनी ही बार लड़ चुका था, राजस्थान का इतिहास ऐसे गृहयुद्वों से भरा पड़ा है, पर ये लड़ाइयाँ उन्हें एक दूसरे से बिलग नहीं करती थीं। दिन भर एक दूसरे के खून में भाले भिंगोने के बाद शाम को वह फिर मिल बैठते थे, और परस्पर प्रेमालिंगन करते थे, पर आज राणा को ऐसा मालूम हुआ कि ये भाई-बन्द मुझसे सदा के लिए बिछुड़ गये है, क्योंकि वह सच्चे राजपूत नहीं रह गये, उनकी बेटियाँ और बहनें अकबर के अन्तःपुर में दाखिल हो गई है। हा शोक! इन राजपूतों का राजपूती खून ऐसा ठंढा हो गया हैं। क्या राजपूती आन और जाति-अभिमान इनमें नाम को भी बाकी नहीं। हां! अपनी मान-प्रतिष्ठा की रक्षा का विचार क्या उनके मन से बिल्कुल ही उठ गया। शोक कि उन्ही राजपूत, ललनाओं की बहनें जो चित्तौड़ के घेरे के समय अपने सतीत्व की रक्षा के लिए 'जौहर' करके जल मरी थीं, आज अकबर के पहलू में बैठी है और प्रसन्न है। उनके म्यान से तेगा क्यों नहीं निकल पड़ता। उनके कलेजे क्यों नहीं फट जाते। उनकी आँखों से खून क्यों नहीं टपक पड़ता, हा हन्त! इक्ष्वाकु के वंश और पृथ्वीराज के कुल की यह दुर्दशा हो रही है!

प्रताप ने उन राजाओं से जिन्होंने उसके विचार से राजपूतों को इतना जलील किया था, संबन्ध-विच्छेद कर लिया। उनके साथ शादी-ब्याह की तो बात ही क्या, खाना-पीना तक उचित न समझा। जब तक मुग़ल-राज्य बना रहा, उदयपुर के घराने ने केवल यही नहीं