पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कलम, तलवार और त्याग
[ ६८
 


और उनके सत्संग से लाभ उठाते रहते थे। कहते हैं कि परमतत्व की जिज्ञासा उन्हें तिब्बत खींच ले गई जहाँ उन्होने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और साधन-प्रणाली का समीक्षक बुद्धि से अध्ययन किया। स्वामीजी खुद फरमाते हैं कि मुझे दो-दो तीन-तीन दिन तक खाना न मिलता था, अकसर ऐसे स्थान पर नंगे बदन सोया हूँ जहाँ कि सर्दी का अन्दाजा थर्मामेटर भी नहीं लगा सकता है कितनी ही बार शेर, बाघ और दूसरे शिकारी जानवरों का सामना हुआ। पर राम के प्यारे को इन बातों को क्या डर!

स्वामी विवेकानन्द हिमालय में थे जब उन्हें प्रेरणा हुई कि अब तुम्हें अपने गुरुदेव के आदेश का पालन करना चाहिए। अतः वह पहाड़ से उतरे और बंगाल, संयुक्तप्रांत, राजपूताना, बंबई आदि में रेल से और अकसर पैदल भी भ्रमण करते, किन्तु जो जिज्ञासु जन श्रद्धा-वश उनकी सेवा में उपस्थित होते थे उन्हें धुर्म और नीति के . तत्त्वों का उपदेश करते थे। जिसे विपदगृस्त देखते उसको सांत्वना देते। मद्रास उस समय नास्तिक और जवादियों का केन्द्र बन रहा। था। अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से निकले हुए नवयुवक जो अपने धर्म और समाजव्यवस्था के ज्ञान से बिल्कुल कोरे थे, खुलेआम ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकार किया करते थे। स्वामीजी यहाँ अरसे तक टिके रहे और कितने ही होनहार नौजवानों को धर्म-परिवर्तन से रोका तथा जड़वाद के जाल से बचाया। कितनी ही बार लोगों ने उनसे वाद-विवाद किया। उनकी खिल्ली उड़ाई, पर वह अपने वेदान्त के रंग में इतना डूबे हुए थे कि इन्हें किसी की हँसी-मजाक की तनिक भी परवाह न थी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति नवयुवक-मंडली से बाहर निकलकर कस्तूरी की गंध की तरह चारों ओर फैलने लगी। बड़े-बड़े धनी-मानी लोग भक्त और शिष्य बन गये और उनसे नीति तथा वेदांत-तत्व के उपदेश दिये। जस्टिस सुब्रह्मण्यन् ऐयर, महाराजा रामनद [मद्रास] और महाराजा खेतड़ी [राजपूताना] उनके प्रमुख शिष्यों में थे।