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स्वामी विवेकानन्द
 

स्वामीजी मद्रास में थे जन्ब अमरीका में सर्व-धर्म संमेलन के आयोजन का समाचार मिला। वह तुरंत उसमें संमिलित होने को तैयार हो गये। और उनसे बड़ा ज्ञानी तथा वक्ता और था ही कौन ? भक्त-मडली की सहायता से आप इस पवित्र यात्रा पर रवाना हो गये। आपकी यात्रा अमरीका के इतिहास की यह अमर घटना है। यह पहला अवसर था कि कोई पश्चिमी जाति दूसरी जातियों के धैर्म-विश्वासों की समीक्षा और स्वागत के लिए तैयार हुई हो। रास्ते में स्वामीजी ने चीन और जापान का भ्रमण किया और जापान के सामाजिक जीवन से बहुत प्रभावित हुए, वहीं से एक पत्र में लिखते हैं-

“आओ, इन लोगों को देखो और जाकर शर्म से मुँह छिपा लो! आओ, मर्द बनो! अपने संकीर्ण बिलो से बाहर निकलो और जरा दुनिया की हवा खाओ।'

अमरीका पहुँचकर उन्हें मालूम हुआ कि अभी सम्मेलन होने में बहुत देर है। यह दिन उनके बड़े कष्ट में बीते। अकिंचनता की यह देशा थी कि पास में ओढ़ने-बिछाने तक को काफी न था। पर उनकी सन्तोष-वृत्ति इन सब कष्ट-कठिनाइयों पर विजयी हुई। अन्त में बड़ी प्रतीक्षा के बाद नियत तिथि आ पहुँची। दुनिया के विभिन्न धर्मों ने अपने-अपने प्रतिनिधि भेजे थे, और यूरोप के बड़े बड़े पादरी और धर्मशास्त्र के अध्यापक, आचार्य हजारों की संख्या में उपस्थित थे। ऐसे महासम्मेलन में एक अकिंचन; असहाय नवयुवक का कौन पुछैया ‘था, जिसकी देह पर साबित कपड़े भी न थे। पहले तो किसी ने उनकी ओर ध्यान ही न दिया, पर सभापति ने बड़ी उदारता के साथ उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली, और वह समय आ गया कि स्वामीजी श्रीमुख से कुछ कहें। उस समय तक उन्होंने किसी सार्वजनिक सभा में भाषण न किया था। एकबारगी ८-१० हजार विद्वानों और समीक्षकों के सामने खड़े होकर भाषण करना कोई हँसी खेल न था। मानव-स्वभाव- वश क्षणभर स्वामीजी को भी घबराहट रही, पर केवल एक बार तबि-