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कलम, तलवार और त्याग
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यत पर जो़र डालने की जरूरत थी। स्वामीजी ने ऐसी पाण्डित्य-पूर्ण, ओजस्वी और धाराप्रवाह वक्तृता की कि श्रोतृमण्डली मंत्र-मुग्ध-सी हो गई। यह असभ्य हिन्दू, और ऐसा विद्वत्तापूर्ण भाषण! किसी को विश्वास न होता था। आज भी इस वक्तृता को पढ़ने से भावा- वेश की अवस्था हो जाती है, वक्तृता क्या है, भगवद्गीता और उपनिषदों के ज्ञान का निचोड़ है। पश्चिमवालों को आपने पहली बार सुझाया कि धर्म के विषय में निष्पक्ष उदार भाव रखना किसको कहते हैं। और धर्मवालों के विपरीत आपने किसी धर्म की निंदा न की और पश्चिमवालों की जो बहुत दिनों से यह धारणा हो रही थी कि हिन्दू तअस्सुत्र के पुतले हैं, वह एकदम दूर हो गई। वह भाषण ऐसा ज्ञान गर्भ और अर्थ-भरा है कि उसका खुलासा करना असंभव है, पर उसका निचोड़ यह है-

हिन्दू धर्म का आधार किसी विशेष सिद्धान्त को मानना या कुछ विशेष विधि-विधानों का पालन करना नहीं है। हिन्द का हृदय शब्दों और सिद्धान्तों से तृप्ति-लाभ नहीं कर सकता। अगर कोई ऐसा लोक है जो हमारी स्थूल दृष्टि के अगोचर है, तो हिन्दू उस दुनिया की सैर करना चाहता है, अगर कोई ऐसी सत्ता है जो भौतिक नहीं है, कोई ऐसी सत्ता है जो न्याय-रूप, दया-रूप और सर्वशक्तिमान हैं, तो हिन्दू इसे अपनी अन्तर्दीष्टि से देखना चाहता है। उसके संशय तभी छिन्न होते हैं जब वह इन्हें देख लेता है।

अपने पाश्चात्य को पहली बार सुनाया कि विज्ञान के वह सिद्धान्त जिनको उनको गर्व है और जिनका धर्म से संबन्ध नहीं हिन्दुओं को प्रति प्राचीन काल से विदित थे और हिन्दू धर्म की नींव उन्हीं पर खड़ी है। और जहाँ अन्य धर्मों का आधार कोई विशेष व्यक्ति या उसके उपदेश हैं, हिन्दू धर्म का आधार शाश्वत, सनातन सिद्धान्त हैं। और यह इस बात का प्रमाण है कि वह कभी न कभी विश्व-धर्म बनेगा 'कर्म को केवल कर्तव्य समझकर करना, उसमें फल या सुख-दुःख की भावना न रखना ऐसी बात थी, जिससे पश्चिमवाले अब