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कलम, तलवार और त्याग
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स्वास्थ्य बिगड़ गया और जलवायु-परिवर्तन के लिए आपको दार्जिलिंग जाना पड़ा। वहाँ से अलमोड़ा गये। पर स्वामीजी ने तो वेदान्त के प्रचार का व्रत ले रखा था, उनको बेकारी में कब चैन आ सकता था। ज्यों ही तबियत जरा सँभली, स्यालकोट पधारे और वहाँ से लाहौरवालो की भक्ति ने अपने यहाँ खींच बुलाया। इन दोनों स्थानों में आपका बड़े उत्साह से स्वागत-सत्कार हुआ और आपने अपनी अमृतवाणी से श्रोताओं के अन्तःकरणों में ज्ञान की ज्योति जगा दी। लाहौर से आप काश्मीर गये और वहाँ से राजपूताने का भ्रमण करते हुए कलकत्ते लौट आये। इस बीच अपने दो मठ स्थापित कर दिये थे। इसके कुछ दिन बाद रामकृष्ण मिशन की स्थापना की है जिसका उद्देश्य लोक-सेवा है और जिसकी शाखाएँ भारत के हर भाग में विद्यमान हैं। तथा जनता का अमित उपकार कर रही हैं।

१८९७ ई० को साल सारे हिंदुस्तान के लिए बड़ा मनहूस था। कितने ही स्थानों में प्लेग का प्रकोप था और अकाल भी पड़ रहा था। लोग भूख और रोग से काल का ग्रास बनने लगे। देशवासियों को इस विपत्ति में देखकर स्वामी जी कैसे चुप बैठ सकते थे। आपने लाहौर वाले भाषण में कहा था-

साधारण मनुष्य का धर्म यही है कि साधु-संन्यासियों और दीन-दुखियो को भरपेट भोजन कराये। मनुष्य की हृदय ईश्वर का सबसे बड़ा मन्दिर है, और इसी मन्दिर में उसकी आराधना करनी होगी।

फलतः आपने बड़ी सरगर्मी से खैरातखाने खोलना आरंभ किया। स्वामी रामकृष्ण ने देश-सेवा-व्रती संन्यासियों की एक छोटी- सी मंडली बना दी थी। यह सब स्वामीजी के निरीक्षण में तन-मन से दीन दुखियों की सेवा में लग गये। मुर्शिदाबाद, ढाका, कलकत्ता, मद्रास आदि में सेवाश्रम खोले गये। वेदान्त के प्रचार के लिए जगह- जगह विद्यालय भी स्थापित किये गये। कई अनाथालय भी खुले। और यह सब स्वामीजी के सदुद्योग का सुफल था। उनका स्वास्थ्य