पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७७ ]
स्वामी विवेकानन्द
 


काम पूरा हो चुका। पर चूँकि उस काम को जारी रखने के लिए जितेन्द्रिय, निःस्वार्थ और आत्मबल-सम्पन्न संन्यासियों की अत्यन्त आवश्यकता थी, इसलिए अपने बहुमूल्य जीवन में शेष भास आपने अपनी शिष्य-मंडली की शिक्षा और उपदेश में लगाये। आपका कथन था कि शिक्षा का उद्देश्य पुस्तक पढ़ानी नहीं है, किन्तु मनुष्य को मनुष्य बनाना है। इन दिनों आप अक्सर समाधि की अवस्था मैं रहा करते थे और अपने भक्तों से कहा करते थे कि अब मेरे महा- प्रस्थान का समय बहुत समीप है! ४ जुलाई १९०२ को यकायक आप समाधिस्थ हो गये। इस समय आपका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। सबेरे दो घंटे समाधि में रहे थे, दोपहर को शिष्यों को पाणिनीय व्याकरण पढ़ाया था और तीसरे पहर दो घण्टे तक वेदोपदेश करते रहे। इसके बाद टहलने को निकले। शाम को लौटे तो थोड़ी देर माला जपने के बाद फिर समाधिस्थ हो गये और इसी रात को पंचभौतिक शरीर का त्याग कर परमधाम को सिधार गये। यह दुर्बल पार्थिव देह आत्म-साक्षात्कार की दिव्यानुभूति को न सह सकी। पहले लोगों ने इस अवस्था को समाधिमात्र समझा और एक संन्यासी ने आपके कान में परमहंसजी का नाम सुनाया, पर जब इसकी कुछ असर न हुआ तब लोगों को विश्वास हो गया कि आप ब्रह्मलीन हो गये। आपके चेहरे पर तेज था और अधखुली आँखें आत्म-ज्योति से प्रकाशित थीं। इस हृदयविदारक समाचार को सुनते ही सारे देश में कोलाहल मच गया और दूर-दूर से लोग आपके अन्तिम दर्शन के लिए कलकत्ते पहुँचे। अन्त में दूसरे दिन दो बजे के समय गंगा-तट पर आपकी दाह-क्रिया हुई, परमहंसजी की भविष्यवाणी थी कि मेरे इस शिष्य के जीवन का उद्देश्य जब पूरा हो जायेगा तब वह भरी जवानी में इस दुनिया से चल देगा। वह अक्षरशः सत्य निकली।

स्वामीजी का रूप बड़ा सुन्दर और भव्य था। शरीर सबल और सुदृढ़ था। वजन दो मन से ऊपर थी। दृष्टि में बिजली का असर था