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कलम, तलवार और त्याग
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किया कि शाही खानदान से ही इस प्रकार का नाता न जोड़ा, बल्कि अम्बर और मारवाड़ को भी बिरादरी से खारिज समझा दिया। उदयपुर यद्यपि अपनी नीति-रीति को निभाते चलने के कारण, विपद-गर्त में गिरा और दूसरे राजघराने अपना बाना त्यागकर फूलते-फलते रहे. पर सारे राज-स्थान में ऐसा कोई कुल न था जिस पर उदयपुर का नैतिक रोब न छाया हो और जो उसके कुल-गौरव को स्वीकार न करता हो। यहाँ तक कि जब महाराज जयसिंह और महाराज बख्तसिंह जैसे शक्तिशाली नरेशों ने उदयपुर से पवित्र बनाये जाने की प्रार्थना की और वह स्वीकृत हुई तो यह शर्त लगा दी गई की उदयपुर राजकुल की लड़की चाहे जिस कुल में ब्याही जाय, सदा उसी की सन्तान गद्दी पर बैठेगी।

काश राणा अपनी घृणा को अपने दिल ही तक रखता, जुबान तक न आने देता, तो बहुत-सी विपत्तियों से बच जाता। पर उसका वीर-हृदय दबना जानता ही न था। मानसिंह सोलापुर की मुहिम की ओर चला आ रहा था कि राणा से मिलने के लिए कुंभलमेर चला आया। राणा स्वयं उसकी अगवानी को गया और बड़े ठाठ से उसकी दावत की, पर जब खाने का समय आया तो कहला भेजा कि मेरे सिर में दर्द है। मानसिंह ताड़ गया कि इनको मेरे साथ बैठकर खाने में आपत्ति है। झल्लाकर उठ खड़ा हुआ और बोला, 'अगर मैंने तुम्हारा गर्व चूर्ण न कर दिया तो मानसिंह नाम नहीं। तब तक राणा भी वहाँ पहुँच गया था और बोला—जब तुम्हारा जी चाहे चले आना। मुझे हरदम तैयार पाओगे। मानसिंह ने आकर अकबर को उभारा। बारूद पर पलीता पहुँच गया। फ़ौरन राणा पर हमला करने के लिए फौज तैयार करने का हुक्म हुआ। शाहज़ादा सलीम प्रधान सेनापति बनाये गये। मानसिंह और महावत खाँ उनके सलाहकार नियुक्त हुए।

राणा भी अपने बाईस हज़ार शूरवीर और मृत्यु को खेल समझनेवाले राजपूतों के साथ हल्दीघाटी के मैदान में पैर जमाये खड़ा था।