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स्वामी विवेकानन्द
 


है। हर अंग्रेज़ समझता है कि मैं शूरवीर हूँ, साहसी हूॅ और जो चाहूँ कर सकता हूँ। हम हिन्दुस्तानी अपनी असमर्थता के इस हद तक कायल हैं कि मर्दानगी का ख्याल भी हमारे दिलो में नहीं पैदा होता है। जब कोई कहता है कि तुम्हारे पुरखे निर्बुद्धि थे, वह ग़लत रास्ते पर चले, और इसी कारण तुम इस अवस्था को पहुँचे तो हमको जितनी लज्जा होती है, उसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता, और हमारी हिम्मत और भी टूट जाती है। स्वामीजी इस तत्त्वे को खूब समझते थे और किसी दूषित प्रथा के लिए अपने पूर्व-पुरुषों को कभी दोष नहीं देते थे। कहते थे कि हरएक प्रथा अपने समय में उपयोगी थी और आज उसकी निन्दा करना निरर्थक है। आज हम इस बात पर जोर दे रहे हैं कि साधु समुदाय के अस्तित्व से हमारे देश को कोई लाभ नहीं, और हमारी दानधारा को उधर से हटकर शिक्षा-संस्थाओं और समाजसुधार के कार्यों की ओर बहना चाहिए। स्वामीजी इसे स्वार्थपरता मानते थे। और है भी ऐसी ही। साधु कितनी ही अपढ़ हो, अपने धर्म और शास्त्रों से कितना ही अनभिज्ञ हो, फिर भी हमारे अशिक्षित देहाती भाइयो की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति और मनःसमाधान के लिए उसके पास काफी विद्याज्ञान होता है। उसकी मोटी-मोटी धर्म- संबन्धी बातें कितने ही दिलों में जगह पार्टी और कितनों के लिए कल्याण का साधन बनती हैं। अब अगर इनकी आवश्यकता नहीं समझी जाती तो कोई ऐसा उपाय सोचना चाहिए जिसमें उनका काम जारी रहे। पर हम इस दिशा में तो तनिक भी नहीं सोचते और जो रहा-सहा साधन है उसे भी तोड़-फोड़कर बराबर किया चाहते हैं।

सारांश, स्वामीजी अपनी जाति को आचार-व्यवहार, रीति-नीति, साहित्य और दर्शन, सामाजिक जीवन, उसके पूर्व काल के महापुरुष और पुनीत भारतभूमि सबको श्रद्धेय और सम्मान्य मानते थे। आपके एक भाषण की निम्नलिखित अंश सोने के अक्षरों में लिखा जानेयोग्य है-

‘प्यारे देशवासियो! पुनीत आर्यावर्त के बसनेवालो! क्या तुम अपनी इस तिरस्करणीय भीरुता से वह स्वाधीनता प्राप्त कर