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राजा मानसिंह)
 


अगर सद्दे सिकन्दर भी होती तो शायद अपनी जगह पर क़ायम न रह सकती। मगर मानसिंह भी शेर का दिल रखता था। उस पर जवानी का जोश। हौसला कहता था कि सारी सेना की निगाहें तुझ पर हैं, दिखा दें कि राजपूत अपनी तलवार का ऐसा धनी होता है। अन्त को अकबरी प्रताप की विजय हुई। राणा के साथियों के पाँव उखड़ गये। चौदह हजार खेत रहे। केवल ८ हज़ार अपनी जानें सला- मैत ले गये। कहाँ हैं पार्टी की सराहना मैं पन्ने के पन्ने काले करने- वाले! आयें और देखें कि भारत के योद्धा कैसी निर्भयता के साथ ज्ञान देते हैं !

राणा लड़ाई तो हार गया पर हिम्मत न हारा। उसकी हेकड़ी उसके गले का हार बनी रही। जब कभी मैदान वाली पाता, अपने मौत से खेलनेवाले साथियों को लेकर किले से निकल पड़ता और आस-पास में आफत मचा देता। अकबर ने कुछ दिनों तक तरह दी, पर जब राणा की ज्यादतियाँ हद से आगे निकल गई तो सन् १५५६ मैं उस पर फिर चढ़ाई की तैयार की। खुद तो अजमेर में आकर ठहर और मानसिंह को पुत्र की पदवी के साथ इस चढ़ाई को सेनापतित्व दिया। राजा हवा के घोड़े पर सवार होकर दम के दृम में गोगडा जा पहुँचे जहाँ राणा अपने दिन काट रहा था।

राणा ने भी अबकी मरने मारने की ठान ली। ज्योंही दोनों सेनाएँ आमने-सामने हुई और डंके पर चोट पड़ी, दुग्त वदस्त लड़ाई होने लगी। राणा के आन-भरे राजपूत ऐसी बेजिगरी से झपटे कि शाही फौज के दोनों बाजुऔ को छिन्न भिन्न कर दिया। 6पर भानसिंह जो सेना के मध्यभाग में था, अपने स्थान पर अटल रहा अचानक उसके तेवर बदले, शेर की तरह गरजा, अपने साथियों को ललकारा और बिजली की तरह राणा की सेना पर टूट पड़ा। राणा क्रोध में भरा

  • खड़े दीवार--- जाता है कि सिकन्दर नै बर्बर जातियों के प्रतिरोध के लिए कोसे की एक दौमारे बनवाई थी।