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राजा मानसिंह
 


वहाँ ठहरा कि शत्रु मैदान में आये तो लंबी मञ्जिलों की थकन दूर हो। मिर्जा हकीम भी बड़े आगा-पीछा के बाद सेना लिये एक घाटी से निकला और उभयपक्ष में संग्राम होने लगा। दोनों ओर के रनबाँकुरे खूब दिल तोड़कर लड़े। यद्यपि मुक़ाबला बहुत कड़ा था और राजपूतों को ऐसी ऊबड़-खाबड़ जमीन पर लड़ने का अभ्यास न था, पर मानसिंह ने सिपाहियों को ऐसा उभारी और ऐसे मौके मौके से कुमक पहुँचाई कि अन्त में मैदान मार लिया। दुश्मन भेड़ों की तरह भागे। राजपूतों के अरमान दिल के दिल ही में रह गये। पर दूसरे दिन सूरज भी न निकलने पाया था कि मिर्जा का मामू फ़रीद् फिर फौज लेकर आ पहुँचा। मानसिंह ने भी अपनी सेना उसके 'सामने ले जाकर खड़ी की और चटपट ,खून की प्यासी तलवारे म्यानो से निकलीं, तोपों ने गोले दागे, और रेलपेल होने लगी। दो घंटे तक तलवारें कड़कती रहीं। अन्त को शत्रु पीछे हटा और मानसिंह विजय-दुंदुभी बजाता हुआ काबुल में दाखिल हुआ। पर धन्य है अकबर की दयालुता और उदारता को कि जो देश इतने रक्तपात के बाद जीता गया, उस पर कब्जा न जमाया, बल्कि मिर्जा का अपराध क्षमा कर दिया और उसको देश उसको लौटा दिया। पेशावर और सीमान्त-प्रदेश का शासन-भार मानसिंह को सौंपा और राजा ने बड़ी बुद्धिमानी तथा गंभीरता से इस कर्तव्य का पालन किया। उश देश का चप्पा-चप्पा उपद्रव-उत्तगत का अखाड़ा हो रहा था। मानसिंह ने अपने नीति-कौशल और दृढ़ता से बड़े-बड़े फसादियों की रंगे ढीली कर दीं। इसके साथ ही उसके सौजन्य ने भले आदमियों का मन जीत लिया। दुल-के-दल लोग सलाम को हाजिर होने लगे। फिर भी वह प्रजा को अधिक समय तक संतुष्ट न रख सका। उसके सिपाही आखिर राजपूत थे। अफ़ग़ानों के अत्याचार याद करते तो बेअख्तियार माथे पर बल पड़ जाती। इस भाव से प्रेरित होकर प्रजा को सताते। अतः इसकी शिकायतें अकबर के दरबार में पहुंचीं। राजा बिहार भेज़ दिये गये।