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कलम, तलवार और त्याग
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बंगाल अकबर के साम्राज्य का वह नाजुक भाग था, जहाँ फसाद का मवाद इकट्ठा होकर पका करता था। पठानों ने अपने तीन सौ साल के शासन में इस देश पर अच्छी तरह अधिकार जमा लिया था। बहुतेरे वहीं आजाद हो गये थे और यद्यपि अकबर ने कई बार उनका नशा हिरन कर दिया था, फिर भी कुछ ऐसे सिर बाक़ी थे, जिनमें राज्य की हवा समाई हुई थी और वह समय-समय पर उपद्रव खड़ा किया करते थे। वहाँ के हिन्दू राजाओं ने भी उनसे प्रेम का नाता जोड़ रखा था और आड़े समय पर काम आया करते थे।

मानसिंह के जाते ही राजा पूरनमल कंधोरिया पर चढ़ गया और उसके दर्प-दुर्ग को ध्वस्त कर दिया। राजा संग्राम (सिंह) को भी तलवार के घाट उतारी और कुक्ष राजाओं को भी दबाकर बिहार को उपद्रव उठानेवालों से साफ कर दिया। इन विश्वस्त सेवाओं के पुरस्कार-स्वरूप उसको राजा की पदवी, शाही जोड़ा, सुनहरे जीन सहित घोड़ा और पंचहज्जारी का पद प्रदान किये गये।

पर ऐसे मनचलें जोशीले राजपूत से कब चुप बैठा जाता था। सन् १५९० ई० मैं उसने घोड़े को एँड़ लगाई और उड़ीसा में दाखिल हो गया। उन दिनों यहाँ का़तुल खाँ पठान राज्य करता था। सामने के लिए तैयार हुआ, पर संयोग-वश इसी बीच पठानों में अनबन हो गई। क़तलु खाँ कतल हुआ, बाकी सरदारों ने अधीनता स्वीकार की और कई साल तक आज्ञा-धारक बने रहे। पर अचानक उनकी हिम्मतों ने फिर सिर उभारा और बादशाही मुल्क पर चढ़ आये। इधर मानसिंह बेकारी से ऊब उठा था। बाहाना हाथ आया। तुरन्त सेना लेकर बढ़ा और दुश्मनों के इलाके में अकबरी झंडा गाड़ दिया। पठान बड़े जोश से मुकाबले को आये, पर राजपूत सूरमाओं के आगे एक भी पेश न गई। दम के दम में सुथराव हो गया और बिहार से लेकर समुद्रतट तक अकबरी प्रताप की पताका फहराने लगी।

राजा मानसिंह रण-विद्या में जैसा पण्डित था, राजनीति के तौं से भी वैसा ही सुपरिचित था। उसकी गहरी निगाह ने साफ देख