पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९३ ]
राजा मानसिंह
 


विशेषता यह कि वह स्वयं भी एक सुविख्यात सुसम्मानित कुल का दीपक था जिसके साथ २० हजार योद्धा हरदम पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे। पर हा, हन्त! सहज वामविधि से उसका यह सम्मान और उत्कर्ष न देखा गया। सन् १६०५ ई० में अकबर ने इस नश्वर चोले का त्याग किया और उसी दिन से मानसिंह का गौरव- सूर्य भी अस्ताचल की ओर अभिमुख हुआ। तथापि जहाँगीर के राज्यकाल में भी उसने ९ बरस तुझे इज्जत-आबरू के साथ निबाह दिया। उसकी सुलझी हुई बुद्धि और व्यवहार-कुशलता की सराहना करनी चाहिए कि जैसा समय देखता था, वैसा करता था और जहाँगीर की उदारता को भी धन्य है कि यद्यपि मानसिंह को खुसरो की ओर से उठाये जानेवाले बखेड़ों का मूल कारण समझता था पर उसका पद् और अधिकार सब ज्यों-का-त्यों रखा। खानखाना और मिरजा अजीज़ समय के संकेत को समझने की बुद्धि न रखते थे। अतः अकबर के बाद जब तक जिये जन्मृत रहे। दुर्दिन के कष्ट झेलते रहें।

सन् १६१४ ई० में जहाँगीर ने एक विशाल सेना खाँजहाँ के सेनापतित्व में दक्षिण पर चढ़ाई करने को भेजी। मानसिंह भी, जो दरबार की उपेक्षा से खिन्न हो रहा था, इस मुहिम के साथ चला कि हो सके तो बुढ़ापे मे जवानी का जोश दिखाकर बादशाह के दिल में जगह पाये। पर मौत ने यह अरमान निकालने न दिया। बेटों में केवल भावसिंह जीता था। जहाँगीर ने उसे मिरजा राजा की पदवी देकर चारह़जारी के पद पर प्रतिष्ठित किया।

मानसिंह युद्ध-नीति और शासन-नीति दोनों का पण्डित था और उनको सम्यक् प्रकार से काम में लाना जानता था। जिस मुहिम पर गया, विजय, कीर्ति लेकर ही लौटा। अफगानिस्तान के लोग अभी तक उसका नाम आदर के साथ लेते हैं। इन गुणों के साथ साथ वह स्वभाव की विनम्र और मिलनसार था। सबके साथ सज्जनोचित व्यवहार करता। पीठ-पीछे लोगों की भलाई करता, प्रसन्नचित्त तथा विनोद-प्रिय था। उसकी उदारता इस ज़माने में बेजोड़ थी, जिसकी