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राजा टोडरमल
 


हुई कि वह यह दिखाये कि मैं किस रग-पट्टे और दम-खम का सिपाही हूँ। उन दिनों हुसैन कुली खाँ–खाँजमाँ ने फ़साद पर कमर बाँधी थी। वह अपने समय का बड़ा ही रण-कुशल, पराक्रमी योद्धा था, और कितने ही मारकों में अपने साहस तथा वीरता का प्रमाण दे चुका था। खुद तो बिहार और जौनपुर के सूबे दबाये बैठा था और अपने छोटे भाई बहादुर खाँ को, जो वीरता और साहस में उसी की जोड़ी था, अवध की ओर रवाना किया था। अकबर ने मीर मुइज्जुलमुल्क को भेजा कि बहादुर खाँ को गिरफ्तार करके दरबार में हाजिर करे। पर उससे कोई काम न-बनते देखकर टोडरमल को भेजा कि विकृत-मस्तिष्क नमकहरामो को चेतावनी दे दे और इससे काम न निकले तो कान उमेठकर अक्ल ठिक कर दे। टोडरमल तुरंत इस मुहिम पर रवाना हुआ, पर मुकाबला ऐसा का था और मीर मुइज्जुलमुल्क, जिसके नाम सेनापतित्व था, ऐसा कच्चा सिपाही था कि शाही फौज को पीछे हटते ही बना.! हाँ, धन्य है टोडरमल को कि मैदाम से न टला और इस हार में भी मानो उसकी जीत ही रही। अकबर ने पहली बार परीक्षा ली थी, उसमें पूरा उतरा। फिर तो उसकी लेखनी की तरह उसकी-तलवार भी सराटे भरने लगी। जिस भूमि पर जाता, विजय लक्ष्मी: उसके गले में जयमाल डाली। चित्तौड़, रणथंभोर और सूरत की विजयों में उसने अपना लोहा मनवा दिया और अपने समय के प्रौद्, सम्मानित सेना नायको' में गिना जाने लगा।

पर सबसे बड़ी-मुहिम जिसने उसकी वीरत का सिमा मिटा दिया और जिसमें उसने अपने जीवन के ७ साल लगा दिये, बंगाल की चढ़ाई थी। खाँजमाँ ने सन् १५६७ ई० में अपनी करनी का फल पाया, और मुनइम खाँ खानरान उसकी जगह सेनापति बनाया गया। पर कुछ तो वह स्वभाव से ही शान्ति-प्रिय था, और कुछ बंगाल के अफ़यान, युद्ध ने तूल खींचा। अन्त को शाही फौज के लोग आठ प्रहर की दैड़धूप से ऊब गये। जी चुराने लगे। अकबर को इन सब बातो की गुप्त सूचना मिलती रहती थी। सोचा कि किसी ऐसे दृढचित्त और