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कवितावली

अर्थ—रावण रण के लिए गुस्सा हुआ। उसने बाने-वाले वीरों को बुलाया जो युद्ध के सब समाज को संयुक्त करने को रीति को जानते हैं (अर्थात् ब्यूह इत्यादि रचकर लड़ना जानते हैं)। चतुरङ्ग सेना बढ़ चली और जल्दी से निशान बजने लगे, रावण की सेना सराहने योग्य थी। उसे देखकर बन्दर और भालु किलकारी मारने लगे और ऐसे आगे बढ़े जैसे कंगाल अच्छे भोजनी की थाली को देखकर बढ़ता है। रामचन्द्र के रुख को देखकर हनुमानजी प्रसन्न होकर इस भाँति झपटे जैसे शिकार के लिए बाज़ का सिर खोल दिया गया हो (बाज़ का सिर और आँखें कपड़े से ढकी रहती हैं और जब शिकार होता है तो खोलकर उसे दिखा देते हैं तो वह उस पर झपटता है)।

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साजि कै सनाह गजगाह स उछाह* दल,
महाबली धाये बीर यातुधान धीर के।
इहाँ भालु बंदर बिसाल मेरु मंदर से,
लिये सैल साल तोरि नीरनिधि तीर के॥
तुलसी तमकि ताकि भिरे भारी जुद्ध क्रुद्ध,
सेनप सराहैं निज निज भट भीर के।
रुंडन के झुंड झूमि झूमि झुकरे से नाचैं,
समर सुमार सूर मारे रघुवीर के॥

अर्थ—बख़तर अङ्ग में पहनकर और घोड़ो को साजकर बड़े उत्साह के साथ बड़े बलवान् धीर रावण के वीर धाये। दूसरी ओर मेरु और मन्दर से भालू और बन्दरों ने समुद्र के किनारे के पहाड़ और साल वृक्ष उखाड़ लिये। तुलसीदासजी कहते हैं कि युद्ध में क्रोधित होकर दोनों तमककर और एक दूसरे को देखकर भिड़ गये। दोनों ओर के सेनापति अपनी-अपनी फ़ौज के योधाओं को सराहते थे। रुण्ड के झुण्ड झूम-झूमकर क्रोधित से अथवा अधजले से नाचते थे। रामचन्द्र के मारे वह शूर भी, जिनकी लड़ाई में बड़ी गिनती थी अर्थात् जो प्रख्यात योधा थे, नाच रहे थे।

शब्दार्थ—झुकरे= क्रोधित वा झुलसे।


*पाठान्तर—से उछाह।