पृष्ठ:कवितावली.pdf/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७६
कवितावली

[ ११८ ]

गहि मंदर बंदर भालु चले सो मनो उनये घन सावन के।
तुलसी उत झुंड प्रचंड झुके, झपटैं* भट जे सुरदावन के॥
बिरुझे बिरुदैत जे खेत अरे, न टरे हठि बैर बढ़ावन के।
रन मारि मची उपरी उपरा, भले बोर रघुप्पति रावन के॥

अर्थ―पहाड़ी को लेकर बन्दर और भालु चले सो ऐसा मालूम होता था कि मानों सावन के बादल घिरे हैं। हे तुलसी! उधर भारी-भारी झुण्ड इकट्ठा हुए और बड़े-बड़े भट सुरों को ड़रानेवाले (रावण के) झपटे यानी आगे बढ़े। बड़े विरदवाले एक दूसरे से उलझ गये (भिड़ गये) और बैर बढ़ानेवाले योधा हठ से न टले। अथवा हठि-बैर-बढ़ावन (ज़बरदस्ती बैर बढ़ानेवाले रावण) के जो विरदवाने वीर थे वह खेत में अड़ गए और न हटे। चढ़ा उपरी रण में मार-मार मची, रामचन्द्र और रावण दोनों के वीर भले थे अथवा रण में चढ़ा ऊपरी अर्थात बारी-बारी से राम और रावण के भले (अच्छे) वीरों में मार-मार मची।

[ ११९ ]

सर तोमर सेल समूह पँवारत, मारत बीर निसाचर के।
इततेँ तरु ताल तमाल चले, खर खंड प्रचंड महीधर के॥
तुलसी करि केहरि नाद भिरे, भट खग्ग†खिगे खपुवा खरके।
नख दंतन सों भुजदंड बिहंडत, मुंड सों मुंड परे झरके॥

अर्थ―वीर राक्षस लोग बाय तोमर सेल (लाँग) फेंककर मारते थे। इधर से (रामचन्द्र की ओर से) पेड़ तमाल और बड़े-बड़े पहाड़ों के टुकड़े फेंके जाते थे। हरि का नाम लेकर अथवा केहरि (सिंह) कैसा नाद (गरज) करके वीरों के झुण्ड भिड़े अथवा भट खग्ग (खङ्ग, तलवार) से स्वर्ग (मारे गये) और कायर लोग भागे। (राक्षस हरि को वैरी मानकर मारने के लिए नाम लेते थे और बंदर अपना मालिक जान कर) नख और दाँतो से भुजाओं को काट डालते थे और धड़ से सिर अलग हो होकर गिर रहे थे।

शब्दार्थ―खग्ग = तलवार। खगे = खँग गये, अड़ गये अथवा मारे गये। खपुवा = कायर। खरके = खिसके।



*पाठान्तर―झपटे।
†पाठान्तर―खङ्ग।