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लङ्काकाण्ड
[ १२० ]

रजनीचर मत्तगयंद-घटा विघटै, मृगराज के साज लरै।
झपटै, भट कोटि माही पटकै, गरजै रघुवीर की सौंह करै॥
तुलसी उत हाँक दसानन देत, अचेत भे बीर, को धीर धरै?।
विरुझो रन मारुत को बिरुदेंत, जो कालहु काल सो बूझि परै॥

अर्थ—(हनुमान्) राक्षसों की मस्त-हाथी-रूपी घटा को नाश कर रहे थे और शेर की तरह लड़ते थे। झपटते थे और करोड़ों वीर राक्षसों को पृथ्वी पर दे मारते थे। रामचन्द्र की सौगन्द खा-खाकर गरजते थे। तुलसीदास कहते हैं कि दूसरी ओर से रावण बढ़ाता था। (यह देख) वीरों को होश न रहा। कोई किसी को न सँभालता था। विरुदैत (विरुदवाले) हनुमानजी रण में विरुझे अर्थात् बिगड़े और काल को भी काल से दिखाई देने लगे।

[१२१]

जे रजनीचर बीर बिसाल कराल बिलोकत काल न खाये।
ते रनरौर कपीस-किसोर, बड़े बरजोर परे फंग* पाये॥
लूम लपेटि अकास निहारिकै, हाँकि हठी हनुमान चलाये।
सूखि गे गात चले नभ जात, परे भ्रम-बात न भूतल आये॥

अर्थ—जो राक्षस बड़े बली देखने में कराल (डरावने) थे, जिनके देखते ही मानो काल ग्रस लेता था या जिनको काल भी न खाता था, अथवा जिनको काल भी विकराल देखता था कि खा न जाय, उन लड़ाके तेज बलवानों को हनुमान ने फँसाया अथवा अपने बस में पड़ा पाया। उनको पूँछ में लपेटकर आकाश की ओर देखकर हठी हनुमान ने फेंक दिया। उनके बदन सूख गये, वह आकाश की और चले गये और हवा के चक्कर में फँसकर फिर पृथ्वी पर न आये।

शब्दार्थ—फंग= फंदा।

[ १२२ ]

जो दससीस महीधर-ईस को बीस भुज
लोकप दिग्गज दानव देव सवै सहमैं


* पाठान्तर—फल।