पृष्ठ:कवितावली.pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७८
कवितावली

कवितावली बीर बड़ो विरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पवारो। सो हनुमान हनी मुठिका, गिरिगो गिरिराज ज्यों गाज को मारो ॥ अर्थ-जिस रावण ने कैलास पर्वत को बीस भुजाओं पर रखकर खेल समझा, जिसका भारी साहस सुनकर लोकपाल और दिकपाल ; देव और दानव सबही सहम (डर ) आते थे, जो बड़ा बाँका वीर और बली था, जिसका नाम अब तक जग गाता है, सो हनुमान की मुष्टिका मारने से ऐसा गिर गया जैसे पर्वतों का राजा बन का मारा हुआ। शब्दार्थ-चारो = लम्बो कहानी ।। दुर्गम दुर्ग पहार ते भारे प्रचंड महा भुजदंड बने हैं। लक्ख में पक्खर तिक्खन तेज जे सूर समाज में गाज गने हैं। ते विरुदैत बली रन-बाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं। नाम लै राम देखावत बंधु को, धूमत घायल घाय घने हैं । अर्थ-पहाडी किलों से भी ज़्यादह कठिन अथवा किलों से कठिन और पहाड़ों से भी भारी जिसकी भुजाएं हैं, जो लाखों को कवच-स्वरूप हैं, जिनका तेज तीक्ष्ण है, शुर-समाज जिन्हें गाज (व) समान जानता है, उन बाँके वीरों को हठो हनुमान ने भगा-भगाकर मारा । नाम लेकर श्रीरामजी लक्ष्मणजी को दिखाते हैं कि हनुमान के मारे बहुत से घाय (घाव ) लगे हुए घायल घूम रहे हैं। घनाक्षरी [ १२४ ] हाथिन से हाथी मारे, घोरे घोरे से सँहारे, रथनि सो.. रथ, बिदरनि बलवान की । चलो चोट चरन चकोट चाहे, नी फौजें भहरानी जातुधान की ॥ इक सराहना करत राम, की सराहै रीति साहेब सुजान की ।