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कवितावली


महाबल-पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट
जहाँ तहाँ पटके लँगृर फेरि फेरि कै॥
मारे लात, तोरे गात, भागे जात, हाहा खात,
‘कहैं तुलसीस राखि राम की सौं’ टेरि कै।
ठहर ठहर परे कहरि कहरि उठैं,
हहरि हहरि हर सिद्ध हँसे हेरि कै॥

अर्थ—बड़े तेजवाले बली (बलवान्ट्) भुजावाले वीरों ने (राक्षसों ने) हनुमान् को दौड़ कर घेर लिया। बड़े बल के ढेर हनुमान् ने भुजाओं से और पूँँछ घुमा-घुमाकर योधाओं को जहाँ-तहाँ पटक दिया और वह शेर की तरह गरजने लगा। लात मारता था, देह तोड़ डालता था जिससे राक्षस हाहा खाते हुए भागे जाते थे और पुकार-पुकार कर कहते थे कि हे तुलसीस, (हनुमान्) तुझे राम की क़सम है, हमें रखले। ठहर-ठहर की पुकार पड़ी थी परन्तु कहर सा पड़ गया था अथवा ठौर-ठौर पर (कहीं कहीं) कराह उठते थे। हर और सिद्ध लोग देख-देखकर हहर-हहर अर्थात् ठट्ठा मारकर हँसते थे।

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जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर,
जाकी आँच अजहूँ* लसत लंक लाहसी।
सेई हनुमान बलवान बाँके बानइत,
जोहि जातुधान-सेना चले लेत थाहसी॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय,
कुम्भऊकरन आइ रह्यो पाइ आहसी।
देखे गजराज मृगराज ज्यों गरजि धायो
बीर रघुबीर को समीर-सूनु साहसी॥

अर्थ—जिसकी बाँकी वीरता को सुनकर शूर सहम जाते हैं, जिसकी आँच से जली आज भी लंका को लाह सी लगी दिखाई पड़ती है, वही बलवान् बाँके हनुमान् राक्षसों की सेना की थाह सी लेते हुए फिर रहे हैं। अकम्पन काँप


*पाठान्तर—अबहूँ।