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लङ्काकाण्ड
[१३४]



ओझरी की झोरी काँधे, आँतान की सेल्ही* बाँधे,
मुँँड़† के कमंडलु, खपर किये कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड वनी तापसी सी
तीर-तीर बैठीं सो समर सरि खोरि कै॥
सोनित सों सानि सानि गूदा‡ खात सतुआ से,
प्रेत एक पियल बहोरि घोरि घोरि कैं।
तुलसी बैताल भूत साथ लिये भूतनाथ
हेरि हेरि हँसत हैं हाथ जोरि जोरि कै॥

अर्थ— आँतों की थैली की झोरी कन्धे पर डाले, आँतों की सेल्ही बाँधे, सिरों का कमण्डल लिये, खोदकर खोपड़ी का बना खप्पर लिये योगिनियाँ इकट्ठी होकर, झुण्ड बाँधकर, तपसी की भाँति उस युद्धरूपी नदी में नहाकर किनारे किनारे बैठी हैं। गूदे को लोहू से सान सानकर सतुआ की तरह खाती हैं। कोई-कोई प्रेत (झुटंग) (एक प्रकार को योगिनी) घोर-घोर कर पीती है। तुलसीदास कहते हैं कि भूतनाथ (भैरव) बैताल और भूतों को साथ लिये हाथ मिल्वा-मिलाकर अथवा रामचन्द्र की ओर देख-देखकर हाथ जोड़ जोड़कर हँसते थे।

सवैया
[ १३५]

राम सरासन तें चले तीर, रहे न सरीर, हड़ावरि फूटी।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खप्पर जोगिनि जूटी॥
सोनित छींटि-छटानि-जटे तुलसी प्रभु सोहैं, महाछवि छूटी।
मानौ मरक्कत सैल बिसाल में फैलि चली बर वीर-बहूटी॥



*पाठान्तर—थैली।
†पाठान्तर—सुंंड।
‡पाठान्तर—गुदा।