पृष्ठ:कवितावली.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८६
कवितावली

अर्थ—श्रीराम के धनुष से तीर चले जो हाड़ों में से निकल-निकल गये, शरीर में न रहे। धीर रावण ने पीर को कुछ न गिना। रुधिर देखकर योगिनियाँ खप्पर ले लेकर इकट्ठा हो गई। रुधिर के छोंटे प्रभु के खूबसूरत बदन पर पड़े हुए महाछबि दे रहे थे, मानो मरकत मणि के पर्वत पर चारों ओर से अच्छी बीरबहूटियाँ फैल रही हैं।

घनाक्षरी
[१३६]


मानी मेघनाद सों प्रचारि भिरे भारी भट,
आपने अपने पुरुषारथ न ढील की।
घायल लषनलाल लखि बिलखाने राम,
भई आस सिथिल जगन्निवास दील* की॥
भाई को न मोह, छोह सीय को न, तुलसीस
कहैं "मैं बिभीषन की कछु न सबील की।"
लाज बाँह बोले की, नेवाजे की सँभार सार,
साहेब न राम से, बलैया लेउँ सील की॥

अर्थ— मानी मेघनाद से बड़े-बड़े वीरों को साथ लेकर (लक्ष्मण भिड़ें) अथवा ललकारके बड़े-बड़े वीर मेघनाद से भिड़ गये। और किसी ने भी अपने-अपने बल में कमी नहीं की। लक्ष्मणजी को घायल सुनकर रामचन्द्र को शोक हुआ और उनके डील (शरीर) वा दील (दिल) को आशा जाती रही। भाई का कुछ मोह न था, न सीता का शोच। वह यही कहते थे कि मैंने विभीषण का कुछ प्रबंध न किया। जो वचन दिया है और विभीषण की बाँह पकड़ो है उसी का शोच था— अपने विरद की सँभाल में पड़े थे। राम से कहाँ साहब हैं, उनके शील की बलाय लूँ।


नोट—कहीं कहीं इस कवित्त को सवैया नं० १३७ अर्थात् कानन वास इत्यादि के पीछे लिखा है। और उसको १३५ के बाद।

* पाठान्तर— डील की।

†पाठान्सर— भील की।