पृष्ठ:कवितावली.pdf/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८७
लङ्काकाण्ड

सवैया

[ १३७ ]

कानन बास, दसानन सो रिपु, आनन-श्री ससि जीति लियो है।
बालि महाबलसालि दल्यो, कपि पालि, बिभीषन भूप किया है॥
तीय हरी, रन बँधु पर्यो, पै भर्यो सरनागत-सोच हियो है।
चाँह पगार उदार कृपालु, कहाँ रघुबीर सो वीर बियो है?॥

अर्थ―

वन के रहते हुए और रावण का सा वैरी होते भी जिसके मुख की श्री (कान्ति) ने चन्द्रमा को भी जीत लिया है; महाबली बालि को मारकर सुग्रीव को और विभीषण को जिसने राजा किया है; स्त्री हरी गई, भाई भी मूर्च्छित हुआ परन्तु शरणागत का सोच जिस के मन में भरा है; ऐसा रामचन्द्र सा बाँह की आड़ देनेवाला, दया करनेवाला, उदार वीर पृथ्वी पर और कौन उत्पन्न हुआ
अथवा दूसरा है?

[ १३८ ]

लीन्हो उखारि पहार बिसाल, चल्यो तेहि* काल, बिलंब न लायो।
मारुतनंदन मारुत को, मन को, खगराज को बेग लजायो॥
तीखी† तुरा तुलसी कहतो, पै हिये उपमा को समाउ न आयो।
मानौ प्रतच्छा‡ परब्बत की§ नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायो॥

अर्थ―हनुमान् ने बड़े पर्वत को उखाड़ लिया और उसी क्षण चल दिया, कुछ देर न की। हनुमान् ने (उस समय) वायु का, मन का और गरुड़ का भी वेग जीत लिया। तुलसीदास कहते हैं कि वे उस समय की अच्छी शीघ्रता की उपमा कहते परन्तु उपमा कोई भी ध्यान में न आई, मानो पहाड़ों की प्रत्यक्ष लीक सी आकाश में दिखाई पड़ी, हनुमान् ऐसे वेग दौड़े।



*पाठान्तर―त्यहि।
†पाठान्तर―तीखो।
‡पाठान्तर―प्रतक्षण पर्वत की नम।
§कीन्ह भलीक।