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लङ्काकाण्ड

ऐसे ताक में निलो रूई में, सकहो न सुहाली र वाहिन्या । अर्थ-आप से कालवासादिक परन्तु मुला मुलाना ( "अन्न साता रहा, यद्यपि रावण सा वैरी हुमा और को हरी गई हलो बालि के बरता को ना करके, सुग्रीव की रक्षा करके और विभीषण शर कमा सरको सेतु (पुल) द्वारा मागन कोजार किया। बड़े घोर संग्राम को देखकर शिव और ब्रह्मा मन में हारे और वीर लक्ष्मगा घायल होकर बन्दरों के से (रुधिर से सनकर लाल) वर्णवाला हो गया। ऐसे शोक में तीनों लोकों को शोक-रहित करके (लक्ष्मण को जिलाकर ) पल ही में सवक और तुलसी- दास के साहब (मालिक रामचंद्र ) के शरम (हनुमान) गये ! अथवा सम त्रिलोक के ही (हृदय) को पल में शोक से रहित करके रामचन्द्र सरन ( रणसहित) हुए अर्थात् स्वयं लड़ने चले । अथवा रामचंद्रजी रावण को मारकर सबको शरण देनेवाले हुए । सवैया [ १४१ ] कुंभकरन्न हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधर, कंधर तोरे । पूषन-बस-विभूषन-पूषन तेज प्रताप गरे अरि-गोरे ॥ देव निसान बजावत गावत, सावत गोग, मन भावत भो रे! नाचत बानर भालु सबै तुलसी कहि “हारे! हहा भइया हो रे॥ अर्थ-रामचन्द्रजी ने कुम्भकर्ण को लड़ाई में मारा और रावण के सिर तोड- वोड़कर मारा। पूषण (सूर्य) वंश के अलंकार श्रीराम के सूर्य कैसे प्रताप के तेज के प्रागे परिरूपी ओले गल गये । देवता लोग निशान बजाते गाते हैं कि हमारा सामन्तपन गया ( हम स्वतन्त्र हुए ) अथवा धावत गो ( बन्दीखाने ) से छूटकर भागे और कहने लगे कि मन भावत हुआ (मन का चाहा हो गया)। बन्दर और मालु सभी नाचते थे। तुलसीदास कहते हैं कि सब 'वाह भाई !' कहते-कहते हार गये अर्थात् थक गये अथवा एक दूसरे को "हो रे हो रे" कहकर बुलाय और हाहा-हाहा हँसकर माहा रे आहा रे कह-कहकर सब वानर भालु नाचने लगे।

    • पाठान्तर-त्रिका

पाठान्तर-धावत गो।

  • पाठान्तर--हहा, भय हारे।