पृष्ठ:कवितावली.pdf/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
उतरकाण्ड

सवैया

[ १४३ ]

बालि से बोर बिदारि सुकंठ थप्यो, हरषे सुर बाजने बाजे।
पल में दल्यो दालरथा दसकंधर, लंक विभीषन राज विराजे॥
राम सुभाव सुने तुलसी हुलसे अलसी, हमसे गल गाजे।
कायर कूर कपूतन की हद तेउ गरीब नेवाज नेवाजे॥

अर्थ―बालि से वीर को मारकर सुग्रीन को जिसने राज पर बिठाया कि सब देवताओं ने प्रसन्न होकर बाजे बजाये। पल में रावण को रामचन्द्र ने मार डाला और लङ्का के राज पर विभीषण को बिठा दिया। रामचन्द्र के स्वभाव को तुलसीदास सुनकर प्रसन्न होता है कि हमसे आलसियों को गले लगाया अथवा ऐसे आलसी भी प्रसन्न होने पर बड़े बल (ज़ोर) से गाजे (गरजने लगे) अथवा तुलसीदास कहते हैं कि राम का स्वभाव सुनकर आलसी प्रसन्न हुए कि बिना परिश्रम ही तर जावेंगे। कायर कूर कपूतों की जो हद थे उन गरीबों को भी गरीबनिवाज ने निवाजा (अनुगृहीत किया)!

[ १४४ ]

बेद पढ़ैं बिधि, संभु सभीत पुजाक्न रावन सों नित आवैं।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरिहि तेँ सिर नावैं॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें जो प्रभुता कवि कोविद गावैं।
राम से बाम* भये तेहि बामहि बाम सबै सुख संपति लावैं॥

अर्थ―जिस रावण के यहाँ डर से ब्रह्मा रोज़ वेद पढ़ते थे और महादेव नित्य पूजा कराने आते थे। सब दानव-देव दीन और दुखी होकर रोज़ दूर ही से सिर नवाते


  • पाठान्तर―सबाम।