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उत्तरकाण्ड

[ १४७ ]

मीत धुनीत कियो कार भालु को, पाल्यो ज्यों काहुन बाल तनूजो।
सज्जन-सींव विभीषन भो*, अजहूँ बिलसे वर बंधु-बधू जो॥
कोसलपाल बिना तुलली सरनागत पाल कृपासु न दूजो।
कूर कुजाति कुयूत अधो सबकी सुधरै जो करै नर पूजो॥

अर्थ―कपि और भालु को पवित्र और मित्र बनाया और ऐसा पाला जैसे कोई अपने पुत्र को भी नहीं पालता है। विभीषण सज्जनो की सर्य्यादा हो गया जो आज तक अपने भाई की स्त्री से विलास करता है। तुलसीदास कहते हैं कि विना कोमल के राजा रामचन्द्र के और दूसरा शरणागत का पालनेवाला नहीं है। जो मनुष्य पूजा करै वह चाहे जैसा क्रूर कुजाति कपूत और पापी क्यों न हो, उसकी भी सब सँभल जाती है।

शब्दार्थ―तनूजो = तन से उत्पन, पुत्र।

[ १४८ ]

तीय-सिरोमनि सीय तजी ज्यहि पावक की कलुषाई दही हैं
धर्म-धुरंधर बंधु तज्यो, पुरोगनि की विधि बोलि कही है॥
कीस निसाचर की करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागत की अनखौहीं अनैसी सुभाय सही है॥

अर्थ―स्त्रियों में श्रेष्ठ सीताजी को त्याग दिया, जिसके पाप को अग्नि ने जला दिया था अर्थात् जिसको अग्नि ने पवित्र कर दिया था, अथवा जिसने अग्नि की कालौंच को हर लिया था अर्थात् अग्नि सबके पाप हरती है उसकी कालौंच को भी सीताजी ने प्रवेश करके हर लिया था। धर्म-धुरन्धर भाई को छोड़ दिया। नगरवासियों को बुलाकर विधि ने कही अर्थात् सीख दो अथवा पुरलोगन (अयोध्यावासियों) को छोड़ दिया और विधि को बुलाकर कहा अर्थात वर्णन किया (रामचरितमानस का उत्तरकांड देखो―यह आचरन बस्य मैं भाई), कपि (सुग्रीव) और निसाचर (विभीषण) की करनी को न सुना न देखा न विचारा। राम ने सदा शरणागत की अनख देनेवाली बातों और बुराइयों को भी सहा है।


  • पाठान्सर―ओ।