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कवितावली

अपराध अषाध भये* जान तें अपने उर आनत नाहिंन जू।
गणिका-गज-गीध-अजामिल के गनि पातक-पुंज सिराहिं न† जू॥
लिवे वारक नाम सुधाम‡ दियो जेहि धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी भजु दीनदयालुहि रे, रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू॥

अर्थ—सेवक से भारी अपराध पड़ने पर भी मन नहीं लाते हैं। गणिका, गज, गीध और अजामिल के पापों के ढेर को गिनकर भी उनकी सराहना की अथवा उनके ऐसे पाप जो गिनते नहीं सिराते (समाप्त) होते अर्थात् अनगिनतिन पापों को देखकर भी एक वेर नाम लेने से उनको वह धाम दिया जहाँ मुनि भी नहीं पहुँचते। तुलसीदास कहते हैं कि दीनदयालु रघुनाथ का भजन कर, जो अनाथ को सदा दाहिने रहते हैं।

[१५०]

प्रभु सत्य करी प्रहलाद-गिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
भखराज ग्रस्यो गजराज, कृपा ततकाल, बिलंब कियो न तहाँ॥
सुर-साखी दै राखी है पांडुवधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
तुलसी भजु सोच-विमोचन को,जन को पन राम न राख्यो कहाँ?॥

अर्थ—प्रभु ने प्रह्लाद की बात को सच्चा किया, खम्भ में से नृसिंहरूप प्रगट हुए। जब मगर ने गजराज को ग्रसा तो क्षण भर की भी हेर न की, तत्काल (फौरन्) कृपा की। जब द्रौपदी का वस्त्र लूटा जाता था, जहाँ करोड़ो राजा थे, तो आपने उसकी लज्जा रक्खी, जिसके देवता साक्षी हैं। तुलसीदास कहते हैं कि शोच के छुड़ानेवाले राम की शरण जा, उन्होंने सेवक की बात को कहाँ नहीं रक्खा।

[१५१ ]

नरनारि उघारि सभा महँ होत दियो पट, सोच हर्यो मन को।
प्रहलाद-विषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकांंरन को॥



* पाठान्तर—परें।
†पाठान्तर—सिराहि न।
‡पाठान्तर—सो धाम।