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उत्तरकाण्ड

जो कहावत दीनदयालु सही, जेहि[१] आर सदा अपने पन को।
तुलसी तजि आन नरेश सजे भगवान भलो करिहैं जन को॥

अर्थ— द्रौपदी को सभा में नग्न होते देख वस्त्र दिया और मन का सोच हरा। वह प्रह्लाद के दुःख को हरनेवाले, हाथों के, तरनेवाले, कारण (बिना कारण) ही जो सबके मीत (मित्र) हैं, जो दीन-दयाल कहाते हैं वह हरी है, वह अपने प्रण सदा निर्वाह करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि जो दूसरे की आस छोड़कर ऐसे भगवान् का भजन करता है उस अपने सेवक का भगवान भला करेंगे।

[१५२]

ऋषिनारि उधारि, किया सठ केवट मीत, पुनीत सुकीर्ति लही।
निज लोक दियो सबरी खग को, कपि थाप्यो से मालुम है सबही॥
दससीस विरोध सभीत बिभीषन भूप कियो जग लीक रही।
करुणानिधि का भजु रे तुलसी, रधुनाथ अनाथ के नाथ सही॥

अर्थ—अहल्या, गौतम-ऋषि की स्त्री, का उद्धार करके, शठ केवट को मित्र बनाया और अच्छा यश पाया। शबरी और जटायु (गीध) को अपना लोक दिया, सुग्रीव को राज्य दिया; सो सभी को मालूम है।‌ रावण के वैर से डरे हुए विभीषण को राजा किया जिसका ज़िक्र संसार भर में है। तुलसीदास कहते हैं कि दया के समुद्र रामचन्द्र को भजो जो अनाथों के सच्चे नाथ हैं।

[१५३]

कौसिक बिप्रवधू मिथिलाधिप के सब[२] सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन-धन्धु कथा सुनि सत्रु सुसाहिब-सील सराहैं॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायक की अगुनी गुन-गाहैं।
आरत दीन अनाथन को रघुनाथ करैं निज हाथ की छाहैं॥

अर्थ—कौशिक मुनि (विश्वामित्र), बिप्रवधू (अहल्या) और जनक के सब शांचों को पल में नाश किया। बालि और रावण के भाइयों की कथा सुनकर बैरी भी साहिब (रामचन्द्र) के शील की सराहना करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि राम-


  1. पाठान्तर—त्याहि।
  2. पाठान्तर—कैशव।