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उत्तरकाण्ड

अर्थ—राक्षस (विभीषण), भालु (जाम्बवान), बन्दर (सुग्रीव), केवट, पक्षी (जटायु) को जो नाथ! आपने पाला है सो मालूम होता है कि यह काम-काज (पालना) का आप को यश सा हो गया है अथवा आपने जिसे पाला वह तुरन्त लायक हो गया। दुखी अनाथ दीन और पापी जो आपके शरण आये उनको आदर अथवा अपना करके रक्खा, यह महाराज का स्वभाव ही है। नाम तुलसी है और भाग्य का भोड़ा हूँ परन्तु दास कहलाया हूँ, आपने ऐसे बड़े दगाबाज़ को भी (सेवा में) स्वीकार किया है। हे दशरथ के दयालु लाल! आप सा समर्थ मालिक दूसरा नहीं है जो अपने दास की लाज रखता हो।

[१५६]


महाबली बालि दलि, कायर सुकंठ कपि
सखा किये, महाराज हौं न काहू काम को।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आये,
कियो अंगीकार नाथ एते* बड़े बाम को॥
राय दसरत्य के समर्थ तेरे नाम लिये,
तुलसी से कूर को कहत जग राम को।
आपने नेवाजे की तौ लाज महाराज को,
सुभाव समुझत मन मुदित गुलाम को॥

अर्थ—बड़े बलवान् बालि को मारकर कायर सुग्रीव को, जो किसी काम का नहीं था, महाराज ने अपना सखा बनाया अथवा जिस सुग्रीव को आपने सखा बनाया था वह भी किसी काम का नहीं था और मैं भी किसी काम का नहीं हूँ। भाई का घात करानेवाले पापी राक्षस को, ऐसे बड़े पापी को, भी शरण में आने पर नाथ ने अङ्गीकार किया। हे दशरथ के समर्थ लाल! तेरा नाम लेने से तुलसी से क्रूर को जगत् (संसार भर) राम का बताता है। अपने निवाजे की अर्थात् जिस पर एक बार कृपा की उसकी महाराज को लाज है। आपका स्वभाव समझकर गुलाम का मन प्रसन्न है।

[१५७]


रूप-सील सिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीन को,
दयानिधान, जान-मनि, बीर बाहु-बोल को।


*पाठान्तर—ऐसे।